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आर्यों की आश्रम व्यवस्था से आप क्या समझते हैं ? इसके विभिन्न प्रकारों तथा उनके महत्त्व की विवेचना कीजिए

मानव जीवन को हर प्रकार से सुनियोजित व सुचारु रूप से विकसित करने में आश्रम व्यवस्था का महत्त्व बहुत अधिक है । मानव अपनी समस्त शक्तियों का संचय, विकास तथा ...

By India Govt News

Published On: 16 September 2023 - 7:00 AM
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आर्यों की आश्रम व्यवस्था

मानव जीवन को हर प्रकार से सुनियोजित व सुचारु रूप से विकसित करने में आश्रम व्यवस्था का महत्त्व बहुत अधिक है । मानव अपनी समस्त शक्तियों का संचय, विकास तथा व्यय कब और कैसे करे, इन सभी प्रश्नों का उत्तर आश्रम व्यवस्था के विधान में मिलता है ।

आश्रम व्यवस्था का अर्थ

संस्कृत भाषा में आश्रम शब्द ‘श्रम’ धातु से निकला है, जिसका अर्थ है, परिश्रम करना तथा वह स्थान जहाँ परिश्रम किया जाए। मनुष्य अपने परम लक्ष्य (मोक्ष) की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है। जीवन की लम्बी यात्रा में वह उड़ान जहाँ मनुष्य खत्म की गई यात्रा की सफलता व असफलता तथा आगे आने वाली यात्रा की योजनाएँ बनाता है, आश्रम कहलाता है। इसे विद्वानों ने निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है-

पी.एन. प्रभु (P.N. Prabhu) ने आश्रम को इस प्रकार परिभाषित किया है—“अतः आश्रमों को जीवन के अन्तिम लक्ष्य परम मुक्ति की दिशा में मनुष्य की यात्रा में आने वाले मिलन स्थानों के रूप में समझना चाहिए।”

बी. एम. सिंह (B. M. Singh) के अनुसार, “आश्रम का अर्थ जीवन का वह विभाग है जिसमें मनुष्य प्रयत्न करता रहता है ।”

आश्रम व्यवस्था के महत्व

इस प्रकार स्पष्ट है कि वह स्थान जहाँ निश्चित समय के लिए निश्चित या विशेष शिक्षा या ज्ञान के लिए साधना की जाती है, आश्रम कहलाता है। मनुष्य की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समस्त क्रियाओं को सुव्यवस्थित रूप से निर्देशित करने की प्रक्रिया ही आश्रम व्यवस्था है। मनुष्य की मौलिक आवश्यकताएँ ज्ञान प्राप्त करना, भौतिक सुख का आनन्द लेना तथा अन्त में मोक्ष प्राप्त करना ही है। आश्रम व्यवस्था के पहले आश्रम (ब्रह्मचर्य) में ज्ञान की प्राप्ति की जाती है, दूसरे आश्रम (गृहस्थ) में भौतिक सुखों को प्राप्त तथा उपभोग किया जाता है तथा तीसरे एवं चौथे (वानप्रस्थ तथा संन्यास) आश्रम में जीवन का लक्ष्य यानी मोक्ष प्राप्त किया जाता है ।

सारांश यह है कि आश्रम व्यवस्था वह प्रक्रिया है जिसमें मानव ज्ञानी से भोगी, भोगी से विरक्त और विरक्त से योगी बनकर स्वयं को परम ईश्वर में लीन कर देता है।

आश्रम व्यवस्था के आधारभूत सिद्धान्त

आश्रम व्यवस्था निम्नलिखित मान्यताओं या सिद्धान्तों पर आधारित है—

1. मानव जीवन का विस्तार 100 वर्ष माना गया है तथा इसको 25-25 वर्ष में विभाजित करके चार आश्रम बनाये गये हैं।

2. मानव जीवन का यह विस्तार एवं चार भागों में इसका विभाजन कुछ विशेष उद्देश्य के लिए बनाये गये हैं। इससे लोक तथा परलोक दोनों को सुधारा जा सकता है।

3. इन उद्देश्यों की पूर्ति तभी हो सकती है जब जीवन की गति व्यवस्थित एवं नियन्त्रित

4. मानव के जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है जो आश्रमों के नियमित एवं क्रमबद्ध पालन से प्राप्त हो सकता है ।

5. आश्रम व्यवस्था में आश्रमों का क्रम इस प्रकार रखा गया है कि व्यक्ति धीरे-धीरे जीवन के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करने के लिए अपने आपको तैयार कर सके । ब्रह्मचर्याश्रम में विद्यार्जन, गृहस्थाश्रम में लौकिक धर्म एवं इच्छाओं की सन्तुष्टि, वानप्रस्थाश्रम में ईश्वर भक्ति व समाज कल्याण तथा संन्यासाश्रम में सांसारिक मोह छोड़कर जप-तप द्वारा मोक्ष प्राप्त करना, यही आश्रम व्यवस्था का क्रम है।

आश्रमों का विभाजन या आश्रमों के प्रकार

हिन्दू धर्मानुसार जन्म से मोक्ष तक सम्पूर्ण जीवन को चार आश्रमों में विभाजित किया गया है। यह आश्रम हैं—(1) ब्रह्मचर्य आश्रम, (2) गृहस्थ आश्रम, (3) वानप्रस्थ आश्रम, तथा (4) संन्यास आश्रम ।

(1) ब्रह्मचर्य आश्रम (Brahmacharya Ashrama) – भारतीय शास्त्रों में मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन सौ वर्ष माना गया है। जन्म से 25 वर्ष का जीवन ब्रह्मचर्य आश्रम हेतु सुरक्षित है। इस आयु में मनुष्य की अवस्था इस प्रकार की होती है कि उसको जिस दिशा में चाहे शारीरिक व मानसिक स्तर पर मोड़ा जा सकता है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है, ऐसे मार्ग पर चलना, जिस पर चलकर महान् बना जा सके । क्षुद्रता से महानता की ओर ले जाने वाला मार्ग इसी आश्रम में रहकर खोजा जाता है। वेदों का अध्ययन, इन्द्रियों को वश में करना, मन और आत्मा को शुद्ध करने की कला ही ब्रह्मचर्य है ।

ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश करने से पूर्व बालक का यज्ञोपवीत संस्कार किया जाता है क्योंकि यज्ञोपवीत से पहले वह द्विजत्व को प्राप्त नहीं करता है। ज्ञान अर्जन, संयमी जीवन तथा शारीरिक एवं मानसिक विकास ब्रह्मचर्य आश्रम का उद्देश्य है। इन सबके लिये बालक को एक स्वस्थ, शुद्ध व नैतिक वातावरण की आवश्यकता होती है जिसमें रहकर वह ब्रह्मचर्य आश्रम के उद्देश्यों को पूर्ण कर सके। इसीलिए बालक को पितृगृह से दूर गुरुकुल में अध्ययन के लिये भेजा जाता है जहाँ उसे उसके स्वभाव और रुचि के अनुसार सभी प्रकार की शिक्षा दी जाती है। इसमें शास्त्र व व्यवसाय सभी शिक्षाएँ सम्मिलित होती हैं।

गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा व आस्था रखना तथा उसकी आज्ञा का पालन करना ही ब्रह्मचारी का मुख्य कर्त्तव्य होता है। इसके अतिरिक्त ब्रह्मज्ञान, दोषों व बुरे कर्मों से दूर रहना, संयम में रहना, धर्माचरण करना, सादा जीवन उच्च विचार के आदर्श को जीवन में लाना, ब्रह्मचारी के उद्देश्य हैं ।

(2) गृहस्थ आश्रम (Grihastha Ashrama) – शारीरिक, मानसिक व आत्मिक रूप से पुष्टता ब्रह्मचर्य आश्रम में प्राप्त हो जाती है। इसके पश्चात् मनुष्य गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है। गृहस्थ आश्रम का काल भी 25 वर्ष यानि 25 से 50 वर्ष की आयु का होता है। यह आश्रम सभी आश्रमों से अधिक महत्त्व का है। वास्तव में गृहस्थ भौतिक सुखों की प्राप्ति व उनका उपभोग इसी आश्रम में करता है। जहाँ एक ओर ब्रह्मचर्य संयम का आश्रम है, वहाँ गृहस्थ उपभोग व धार्मिक अनुष्ठानों का गढ़ है। मनुष्य की सहज काम प्रवृत्ति की संतुष्टि के लिए हमारे ऋषियों ने गृहस्थ आश्रम की व्यवस्था की है। शरीर, मन व आत्मा सभी स्तरों पर ब्रह्मचर्य आश्रम में पूर्णता प्राप्त कर मनुष्य किसी योग्य कन्या से विवाह कर गृहस्थी बन जाता है।
इस आश्रम का मुख्य उद्देश्य देव, पितृ व ऋषि ऋणों से मुक्त होना व काम की तृप्ति है । हिन्दू धर्म में विवाह का अर्थ काम की स्वतन्त्रता को मर्यादा में बाँध कर व्यक्ति को भोग से संयम की ओर, संयम से निवृत्ति की ओर और तत्पश्चात् संसार से ईश्वर की ओर प्रेरित करता है। दादा धर्माधिकारी (Dada Dharmadhikari) ने कहा है—“गृहस्थाश्रम का प्रयोजन है, स्त्री और पुरुष का संयुक्त जीवन । विवाह और गृहस्थाश्रम संयम पालन के लिये है। इसलिए वह ब्रह्मचर्यमूलक है।” अर्थ तथा काम की प्राप्ति के अतिरिक्त गृहस्थ आश्रम का एक अन्य मुख्य उद्देश्य सन्तान प्राप्ति है। समाज की निरन्तरता के लिये सन्तानोत्पत्ति अति आवश्यक है।

गृहस्थ आश्रम की सभी क्रियाएँ घर में ही पूर्ण होती हैं। गृहस्थ का गृह ही सभी आश्रमवासियों यानी ब्रह्मचारियों, वानप्रस्थियों व संन्यासियों के लिये जीवन स्थल होता है। गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करते ही मनुष्य कर्त्तव्यों व उत्तरदायित्वों के बोझ से दब जाता है। प्रथम कर्त्तव्य जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु धन कमाना, समाज एवं परिवार के प्रति धर्मानुसार उस धन को व्यय करना है। लोभ, मोह व क्रोध को त्यागकर धर्म के प्रति निष्ठा रखकर साधुजनों की सेवा व अपनी सन्तान के प्रति पूर्ण उत्तरदायित्व निभाना ही गृहस्थ आश्रम में रहने वाले गृहस्थ के कर्त्तव्य हैं। वास्तविकता यह है कि गृहस्थ आश्रम ही अन्य आश्रमों का आधार है । समाज के उत्थान के लिये सद्गृहस्थ होना आवश्यक है ।

(3) वानप्रस्थ आश्रम (Vanaprastha Ashrama) – गृहस्थ आश्रम में सभी भौतिक सुखों को भोगकर अपने कर्त्तव्यों व उत्तरदायित्वों से मुक्त होकर मनुष्य वानप्रस्थ आश्रम में प्रविष्ट होता है । मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है, उसी की पहली सीढ़ी वानप्रस्थ आश्रम है ।

सगे-सम्बन्धियों व पारिवारिक सम्बन्धों से हटकर जन-साधारण के कल्याण तथा समाज- कल्याण में लगना और आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति वानप्रस्थ आश्रम का उद्देश्य है। वानप्रस्थ में कर्म प्रधान होता है, लेकिन कर्म निष्काम होता है। निःस्वार्थ सेवा व आत्मशुद्धि का दूसरा रूप ही वानप्रस्थ है ।

सामान्यतया 50 वर्ष की आयु में वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश किया जाता है तथा 75 वर्ष की आयु तक यह आश्रम चलता है। इसके लिये सर्वोत्तम स्थान वन में कुटिया बनाकर रहना है। इन्द्रियों पर नियन्त्रण, भौतिक सुखों का त्याग, इस आश्रमवासी की विशेषताएँ हैं। जीवों पर दया, सदाचार का पालन, आत्मनियन्त्रण, शुद्ध व पवित्र जीवन व्यतीत करना ही वानप्रस्थी के कर्त्तव्य हैं ।

(4) संन्यास आश्रम (Sanyas Ashrama) – जीवन के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति ही संन्यास आश्रम का उद्देश्य है। जीवन के अन्तिम भाग में स्वत्व को खत्म कर संसार के आकर्षण से दूर ईश्वर में लीन होकर अन्तिम क्षण की प्रतीक्षा ही संन्यास है। डॉ. राधाकृष्णन (Dr. Radhakrishnan) ने लिखा है- “वे (संन्यासी) विश्व के समस्त वर्गों और समूहों को समदृष्टि से देखते हैं तथा सम्पूर्ण मानवता का कल्याण करना उनका उद्देश्य होता है ।’

संन्यासी का कोई स्थान निश्चित नहीं होता है। कपाड़िया (Kapadia) ने कहा है- “वह अपने को जंगल तक सीमित नहीं रखता था, वरन् गाँव-गाँव जाता था और अपने उदाहरण और उपदेशों से समाज को प्रेरित करता था।” अतः सम्पूर्ण विश्व ही संन्यासी का घर होता है

संन्यासी भौतिक जगत से दूर आध्यात्मिक संसार से जुड़ जाता है। अतः शरीर के प्रति उदासीन हो, वह आत्मा से सम्बन्धित हो जाता है। केवल जीवन के लिये भोजन करना संन्यासी की विशेषता है। ईश्वर का ध्यान, प्राणायाम ही संन्यासी का मुख्य कर्त्तव्य है ।
संक्षेप में, आश्रम व्यवस्था मनुष्य की सभी आवश्यकताओं का एक निर्धारित और सुनियोजित क्रम है। हिन्दू विचारकों व शास्त्रकारों ने आश्रम व्यवस्था के माध्यम से शारीरिक व मानसिक रूप से दृढ़ होकर सांसारिक सुखों को भोगकर, जन-कल्याण में लगकर अन्त में ईश्वर में लीन हो जाने का मार्ग दर्शाया है।

आश्रम व्यवस्था का महत्त्व

वर्ण व्यवस्था व्यक्ति के जीवन के समुचित विकास से सम्बन्धित व्यवस्था है। यदि वर्ण व्यवस्था का सम्बन्ध समाज के सुचारु रूप से संचालन के लिए है तो आश्रम व्यवस्था व्यक्ति के जीवन को सुचारु रूप से संचालन करने के लिए है। ब्रह्मचर्य आश्रम के अन्तर्गत बालक कठोर नियन्त्रण में रहना सीखता है। संयमित जीवन से उसका शारीरिक एवं मानसिक विकास होता है। गृहस्थ आश्रम में वह ऋणों से उऋण होता है और प्रजनन द्वारा समाज की निरन्तरता को बनाये रखने में सहायता प्रदान करता है।

वानप्रस्थ आश्रम में व्यक्ति अपने संचित अनुभवों से समाज को अवगत कराता है और संन्यास आश्रम में संयमित होकर मोक्ष प्राप्ति में लग जाता है। यही आश्रम व्यवस्था का व्यावहारिक महत्त्व है। यह समाज की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी व्यवस्था है तथा समाज के नैतिक व धार्मिक आधारों को सुदृढ़ करने में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। कुछ लोग इसे व्यावहारिक नहीं मानते हैं जो उचित नहीं है ।

आश्रम व्यवस्था के महत्त्व को निम्नलिखित बिन्दुओं से दर्शा सकते हैं-

(1) सामाजिक नियन्त्रण में महत्त्व – आश्रम व्यवस्था ने व्यक्ति के कर्तव्यों और दायित्वों को निश्चित कर दिया है। किसी आश्रम में रहकर वह उस आश्रम के कर्तव्यों के बाहर कुछ नहीं कर सकता । सभी क्रियाकलापों के लिए मान्यता प्राप्त तरीकों का ही प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार समाज नियन्त्रित रहता है ।

(2) जीवन के समुचित विकास की व्यवस्था-आश्रम व्यवस्था के माध्यम से जीवन को चार भागों में बाँटा गया है। इन चारों भागों में भिन्न-भिन्न कार्य व कर्तव्यों को निभाना होता है। जो आयु के अनुसार बिल्कुल उपयुक्त हैं। जैसे बाल्यावस्था में विद्या अर्जन करना, युवावस्था में गृहस्थ सुख एवं इन्द्रिय सुख, प्रौढ़ावस्था में गृहस्थ लगाव से मुक्ति और वृद्धावस्था में संन्यास या मोक्ष प्राप्त करना। इसमें आयु के अनुसार मानव की क्षमता को ध्यान में रखा गया है। इस व्यवस्था से व्यक्ति के जीवन का समुचित विकास सम्भव हो पाता है ।

(3) पुरुषार्थ का पालन – आश्रम व्यवस्था में मानव जीवन के चारों पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की पूर्ति होती है। ब्रह्मचर्य में धर्म की, गृहस्थ में अर्थ एवं काम की तथा वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम में धर्म एवं मोक्ष नामक पुरुषार्थों की पूर्ति होती है। सम्पूर्ण जीवन के लिए इन पुरुषार्थों का पूरा होना आवश्यक माना गया है।

(4) शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक विकास – आश्रम व्यवस्था को इस प्रकार बनाया गया है कि विभिन्न स्तरों में व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक क्षमता में विकास हो। ब्रह्मचर्य में शारीरिक एवं बौद्धिक विकास होता है, नैतिकता और आध्यात्म का विकास होता है। गृहस्थ एवं वानप्रस्थ आश्रम में मानसिक एवं बौद्धिक विकास होता है। संन्यास आश्रम में ज्ञान अपनी चरम सीमा पर होता है।

(5) शिक्षा एवं प्रशिक्षण सम्बन्धी महत्त्व-आश्रम व्यवस्था में प्रारम्भ से ही सीखने का क्रम शुरू हो जाता है। प्रत्येक आश्रम में वह कुछ नया सीखता है। ब्रह्मचर्य आश्रम में गुरु द्वारा शिक्षित होता है एवं धर्म का ज्ञान प्राप्त करता है तो गृहस्थ आश्रम में अर्थ व काम सम्बन्धी ज्ञान और अन्तिम दो आश्रमों में आध्यात्मिक ज्ञान व्यक्ति प्राप्त करता है ।

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