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गुप्तकाल में विज्ञान एवं कला का विकास एवं सामाजिक एवं धार्मिक सुधारों में स्वामी दयानन्द सरस्वती एवं आर्य समाज का योगदान

गुप्तकाल के दौरान विज्ञान और कला का विकास एक महत्वपूर्ण अध्ययन का विषय है। इस युग में विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में बहुत से अभिजात वैज्ञानिक और शोधकर्ता थे ...

By India Govt News

Published On: 16 September 2023 - 8:04 AM
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गुप्तकाल के दौरान विज्ञान और कला का विकास एक महत्वपूर्ण अध्ययन का विषय है। इस युग में विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में बहुत से अभिजात वैज्ञानिक और शोधकर्ता थे जो अपने अनुसंधानों के माध्यम से नए आविष्कारों को जन्म देते थे। इसी दौरान कला के क्षेत्र में भी अधिक विकास हुआ था। वास्तुकला, चित्रकला, संगीत और नृत्य इत्यादि क्षेत्रों में भी नए और अभिनव रूपों का विकास हुआ था। गुप्तकाल का विज्ञान और कला के विकास में एक महत्वपूर्ण योगदान था।

गुप्तकाल में विज्ञान एवं कला का विकास

प्राचीन भारत के इतिहास में गुप्त सम्राटों का शासनकाल अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है। इस युग में सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में अत्यधिक उन्नति हुई। साम्राज्य में शान्ति एवं व्यवस्था बनी रहने एवं गुप्त सम्राटों के प्रोत्साहन के कारण साहित्य, कला एवं विज्ञान की आश्चर्यजनक उन्नति हुई। अतः गुप्तयुग सांस्कृतिक पुनर्जागरण के युग के रूप में विख्यात है।

गुप्तकाल में विज्ञान एवं कला का विकास एवं सामाजिक एवं धार्मिक सुधारों में स्वामी दयानन्द सरस्वती एवं आर्य समाज का योगदान

गुप्तकाल में विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति

(i) ज्योतिष-गुप्तकाल में ज्योतिष के क्षेत्र में काफी प्रगति हुई। आर्यभट्ट ने कई नवीन खोजें की थीं। वह प्रथम भारतीय वैज्ञानिक था जिसने घोषणा की थी कि पृथ्वी गोल है और अपनी धुरी पर घूमती है। उसने सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण के सिद्धान्त का वास्तविक कारण बताते हुए घोषित किया कि सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण राहु और केतु नामक राक्षसों के प्रसने से नहीं होता बल्कि जब चन्द्रमा सूर्य और पृथ्वी के बीच में या पृथ्वी की छाया में आ जाता है तब चन्द्रग्रहण होता है। उसने ‘आर्य भट्टियम्’ नामक विख्यात ग्रन्थ की रचना की ।

वराहमिहिर भी गुप्त-युग का एक प्रसिद्ध ज्योतिषज्ञ था। उसने ज्योतिष के सम्बन्ध में अनेक पुस्तकें लिखीं जिनमें ‘लघुजातक’, ‘बृहत्जातक’, ‘बृहत्संहिता’ और ‘पंचसिद्धान्तिका’ उल्लेखनीय हैं। ब्रह्मगुप्त भी गुप्तकाल का प्रसिद्धगुप्तकाल में विज्ञान एवं कला का विकास ज्योतिषज्ञ था ।

(ii) गणित-गुप्तकाल में गणित की भी पर्याप्त उन्नति हुई। आर्यभट्ट इस युग का प्रसिद्ध गणितज्ञ था। डा. अल्टेकर का कथन है कि ‘आर्यभट्ट’ न केवल नक्षत्र विद्या बल्कि ज्योतिष और गणित का भी उच्चकोटि का विद्वान था। उसने अंकगणित, ज्यामिति, बीजगणित तथा त्रिकोणमिति में भी कई नई खोजें कीं। गणित के क्षेत्र में इस काल की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि दशमलव पद्धति की खोज थी । दशमलव पद्धति ने अंकगणना के शास्त्र को बड़ा सरल बना दिया ।

(iii) आयुर्वेद-गुप्तकाल में आयुर्वेदशास्त्र की भी पर्याप्त उन्नति हुई। नागार्जुन ने ‘रस-चिकित्सा’ नामक नवीन चिकित्सा-पद्धति का आविष्कार किया। इस युग में औषधि-विज्ञान पर अनेक ग्रन्थ लिखे गये जिनमें ‘अष्टांगहृदय’ तथा ‘नवनीतम्’ उल्लेखनीय हैं।

(iv) रसायनशास्त्र तथा धातु-विज्ञान की उन्नति-गुप्तकाल में रसायनशास्त्र तथा धातु-विज्ञान की भी पर्याप्त उन्नति हुई। दिल्ली के निकट बना हुआ महरौली का लौह-स्तम्भ लेख गुप्तकालीन रसायनशास्त्र की उन्नति का श्रेष्ठ उदाहरण है। यह स्तम्भ 24 फुट ऊँचा है। इसका घेरा लगभग 16 इंच है और इसका वजन साढ़े छः टन है। 1500 वर्षों से धूप तथा वर्षा में खड़ा रहने पर भी न तो यह खराब ही हुआ है और न इसको जंग ही लगा है।

गुप्तकालीन कला

गुप्तकाल में वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला, संगीत-कला आदि की अत्यधिक उन्नति हुई।

(i) वास्तुकला-गुप्तकाल में वास्तुकला की विशेष उन्नति हुई। गुप्त-सम्राटों ने अनेक राजमहलों, मन्दिरों, भवनों का निर्माण करवाया था। गुप्तकालीन मन्दिरों में निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं— (1) भूमरा का शिव मन्दिर, (2) जबलपुर जिले में तिगवा नामक स्थान में • विष्णु मन्दिर, (3) देवगढ़ का दशावतार मन्दिर, (4) अजयगढ़ का पार्वती मन्दिर, (5) असम में दाह परबतिया का मन्दिर, (6) भीतरी गाँव का मन्दिर, (7) बोधगया का बौद्ध मन्दिर । इन समस्त मन्दिरों में देवगढ़ तथा भीतरी गाँव के मन्दिर सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं।

(ii) मूर्तिकला – गुप्तकाल में मूर्तिकला की भी बड़ी उन्नति हुई। इस युग की मूर्तिकला विदेशी प्रभाव से रहित है । डॉ. राजबली पाण्डेय का कथन है कि “गुप्तकालीन मूर्तिकला गान्धार शैली के यवन प्रभाव से पूर्णतः मुक्त होकर अपनी कल्पना, भाव-व्यंजना और शारीरिक गठन में शुद्ध भारतीय हो गई।” गुप्तकालीन मूर्तिकला में आध्यात्मिक भावों की अभिव्यक्ति को प्रधानता दी गई। इसमें नग्नता का पूर्णतया अभाव है।

(क) बौद्ध मूर्तियाँ

(1) सारनाथ की बुद्ध मूर्ति-इसमें महात्मा बुद्ध पद्मासन लगाये हुए धर्म-चक्र प्रवर्तन मुद्रा में विराजमान हैं। यह मूर्ति बड़ी प्रभावशाली है और चित्ताकर्षक है।

(2) सुल्तानगंज की बुद्ध मूर्ति-यह तांबे की बनी हुई साढ़े सात फीट ऊँची मूर्ति है।

(3) मथुरा की बुद्ध मूर्ति-इसमें भगवान बुद्ध खड़े हुए दिखलाये गये हैं।

(ख) पौराणिक मूर्तियाँ

(1) विष्णु की मूर्ति- झांसी जिले में देवगढ़ नामक स्थान पर विष्णु की सुन्दर मूर्ति प्राप्त हुई है । यह मूर्ति हिन्दू-मूर्तिकला की सबसे श्रेष्ठ कृतियों में एक मानी जाती है।

(3) गोवर्धनधारी कृष्ण-यह मूर्ति काशी के समीप एक टीले से मिली थी और चित्ताकर्षक है ।

(2) उदयगिरी की वराह मूर्ति-मध्य प्रदेश में उदयगिरी से प्राप्त वराह की मूर्ति गुप्तकालीन मूर्तिकला का एक उत्कृष्ट नमूना है।

है ।

(4) कौशाम्बी की सूर्य मूर्ति-कौशाम्बी की सूर्य मूर्ति भी बड़ी सुन्दर और चित्ताकर्षक

(5) रूपवास की मूर्तियाँ- भरतपुर जिले में रूपवास नामक स्थान से बलदेव तथा लक्ष्मीनारायण की मूर्तियाँ मिली हैं। यह मूर्तियाँ भी गुप्तकालीन मूर्तियों में बड़ी प्रसिद्ध हैं ।

(ग) जैन मूर्तियाँ

गुप्तकाल में कुछ जैन मूर्तियाँ भी निर्मित हुई थीं। मथुरा में महावीर स्वामी की एक मूर्ति मिली है। इसमें महावीर स्वामी पद्मासन लगाए ध्यानमग्न बैठे हैं।

(घ) मिट्टी की मूर्तियाँ

गुप्तकाल में मिट्टी की बनी हुई मूर्तियाँ भी लोकप्रिय थीं। इस प्रकार की बहुत-सी मूर्तियाँ सारनाथ, कौशाम्बी, मथुरा, राजघाट आदि स्थानों से प्राप्त हुई हैं।

(iii) चित्रकला –गुप्तकाल में चित्रकला की भी अत्यधिक उन्नति हुई। गुप्तकालीन चित्रों में सबसे अच्छे नमूने अजन्ता की गुफाओं में मिलते हैं। अजन्ता की नम्बर 16 गुफा में एक मरणासन्न राजकुमारी का चित्र स्वाभाविक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। गुफा नम्बर 16 का ‘महाभिनिष्क्रमण’ नामक चित्र भी प्रभावशाली है। 17वीं गुफा में माता-पुत्र का एक प्रसिद्ध चित्र है। सम्भवतः यह चित्र यशोधरा का है जो अपने पुत्र राहुल को अर्पण कर रही है। इसी प्रकार अजन्ता की गुफाओं की दीवारों पर पशु-पक्षियों, पेड़, फूल और मनुष्य के विभिन्न भावों को प्रकट करने वाले अनेक चित्र उपलब्ध होते हैं। अजन्ता के अतिरिक्त ग्वालियर के निकट बाघ की गुफाओं की दीवारों पर भी अनेक चित्र अंकित हैं ।

(iv) संगीतकला-इस युग में संगीत, अभिनय और नृत्य की भी उन्नति हुई क्योंकि गुप्त सम्राट स्वयं संगीत के बड़े प्रेमी थे। गुप्तकाल के कई सिक्कों पर सम्राट समुद्रगुप्त को 159वीणा बजाते हुए दिखाया गया है, इससे प्रतीत होता है कि गुप्त सम्राटों के प्रोत्साहन के कारण संगीतकला की पर्याप्त उन्नति हुई ।

(v) मुद्रा-निर्माण कला-गुप्तकाल में मुद्रा-निर्माण कला भी बड़ी विकसित थी। गुप्त सम्राटों ने स्वर्ण-मुद्राएँ चलाईं। इन पर गुप्त सम्राटों की विभिन्न रूपों में मूर्तियाँ तथा लक्ष्मी, गरुड़ और सिंह की मूर्तियाँ अंकित करने का ढंग बड़ा सुन्दर और आकर्षक था। गुप्तकालीन मुद्राएँ विदेशी प्रभाव से मुक्त थीं तथा कला की दृष्टि से अनुपम थीं ।

(3) शिक्षा के क्षेत्र में

शिक्षा चार-प्रसार के क्षेत्र में भी आर्य समाज की भूमिका सराहनीय रही। दयानन्द के कुछ शिष्यों ने हरिद्वार में तथा अन्य कई स्थानों पर गुरुकुलों स्थापना की। इनका संचालन प्राचीन आश्रमों की परम्परा के अनुसार किया जाता था। इस दल के नेता मुंशीराम थे। आधुनिक शिक्षा प्रदान करने के लिए आर्य समाज के कुछ नेताओं ने, जिनमें हंसराज प्रमुख थे, अनेक स्थानों पर दयानन्द एंग्लो-वैदिक कॉलेज व विद्यालय स्थापित किए थे आर्य समाज द्वारा स्त्री शिक्षा का भी व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार किया गया । दयानन्द सरस्वती हिन्दी भाषा के प्रबल समर्थक थे। वे हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के समर्थक थे। उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश तथा अन्य कई ग्रंथों की रचना हिन्दी भाषा में ही की थी। हिन्दी भाषा और साहित्य को प्रोत्साहित करके आर्य समाज ने अंग्रेजी भाषा पर निर्भरता को कम करने का प्रयास किया।

(4) राजनीतिक क्षेत्र में

यद्यपि राजा राममोहन राय की भाँति स्वामी दयानन्द सरस्वती ने राजनीतिक अधिकारों की माँग नहीं की परन्तु उनके विचारों से राष्ट्रीयता और स्वराज्य की भावना को बल मिला। सत्यार्थ प्रकाश में उन्होंने स्वदेशी, स्वभाषा, स्वदेश और स्वराज्य के सिद्धान्त प्रतिपादित किए जो कालान्तर में राष्ट्रीय आन्दोलन में उग्रवादियों के महत्त्वपूर्ण शस्त्र बन गए तथा स्वराज्य की दिशा में इनकी महती भूमिका रही। दयानन्द ने भारतीयों को प्राचीन गौरव को याद दिलाकर उनमें आत्मसम्मान, आत्मगौरव व स्वावलम्बन की भावना भरने का प्रयास किया। राष्ट्रीय आन्दोलन में भी आर्य समाज का सराहनीय योगदान रहा।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भारत के धार्मिक पुनर्जागरण में आर्य समाज की भूमिका अति महत्त्वपूर्ण और सराहनीय रही। स्वामी दयानन्द ने जनता के हृदय में ऋषियों तथा वेदों के लिए अपरिमित उत्साह पैदा किया। शुद्धि आन्दोलन द्वारा आर्य समाज ने हिन्दू धर्म व हिन्दू जाति की रक्षा करने का प्रयास किया। दयानन्द ने हिन्दू धर्म को अन्ध-परम्पराओं, रूढ़ियों तथा अन्धविश्वासों से मुक्त करवाने का भरसक प्रयास किया। वैदिक काल के समान समाज में स्त्रियों को अधिकार व सम्मान दिलाने के लिए आर्य समाज ने भागीरथी प्रयास किए। सामाजिक कुरीतियों को दूर करने में यह संस्था अन्य सुधार संस्थाओं की अपेक्षा अधिक सक्रिय रही।

शिक्षा के प्रचार-प्रसार में भी आर्य समाज की भूमिका निस्सन्देह सराहनीय रही। दयानन्द ने भारतीयों के मन में हीनता की भावना को कम करके उनमें राष्ट्रीयता और स्वराज्य प्रेम की भावना को जागृत किया। स्वदेशी, स्वराज्य, स्वभाषा और स्वदेश की अवधारणाओं को प्रतिपादित करके आर्य समाज ने राष्ट्रीय आन्दोलन, विशेष रूप से उग्रवादी आन्दोलन में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

(ii) सामाजिक एवं धार्मिक सुधारों में स्वामी दयानन्द सरस्वती एवंआर्य समाज का योगदानआर्य समाज एवं स्वामी दयानन्द सरस्वती की उपलब्धियों को निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-

(1) सामाजिक क्षेत्र में-इसे निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है—

(क) जाति प्रथा की आलोचना-स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था की कटु आलोचना की। उनका मानना था कि प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर प्राप्त होने चाहिए। यह सम्भव है कि कुछ लोग अपनी शारीरिक व मानसिक दुर्बलताओं के कारण उच्चतम स्थान तक न पहुँच सकें परन्तु उन्हें जन्म से ही ऐसे अवसरों से वंचित नहीं रखा जाना चाहिए। अतः दयानन्द ने वर्ण व्यवस्था को उचित ठहराते हुए जाति व्यवस्था की कटु आलोचना की ।

(ख) स्त्रियों की स्थिति में सुधार-वैदिककाल में स्त्रियों को उच्च शिक्षा तथा सामाजिक जीवन में पूर्ण रूप से भाग लेने का अधिकार था। आर्य समाज द्वारा स्त्री शिक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया गया। स्त्रियों की गिरी हुई दशा के लिए बहुविवाह प्रथा तथा बाल विवाह जैसी कुप्रथाएँ उत्तरदायी थीं। वैदिककाल में ये दोनों ही कुप्रथाएँ प्रचलित नहीं थीं । इसलिए आर्य समाज ने बाल विवाह का विरोध किया तथा स्त्री शिक्षा का प्रबल समर्थन किया ।

(ग) आर्य समाज के प्रभाव से तीन दूरगामी आन्दोलनों का शुभारम्भ-आर्य समाज के प्रभाव से तीन आन्दोलन शुरू हुए-शुद्धि, संगठन और शिक्षा प्रसार । शुद्धि से अभिप्राय उस संस्कार से है, जिसमें गैर-हिन्दुओं, अछूतों, दलित वर्गों तथा धर्म परिवर्तित हिन्दुओं को फिर से हिन्दू धर्म में स्वीकार कर लिया जाता था। संगठन का आशय हिन्दुओं को अपनी रक्षा के लिए संगठित करना था। ये दोनों ही आन्दोलन 20वीं सदी में प्रमुख आन्दोलन बन गए।

दयानन्द ने सर्वाधिक महत्त्व वेदों के अध्ययन पर दिया तथा भारत के पिछड़ेपन का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण चारों ओर फैली अज्ञानता को ही बताया। इस क्षेत्र में आर्य समाज के कार्य का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि अंग्रेजी सरकार के अलावा पंजाब, यू.पी. में और किसी अन्य संस्था ने छात्र-छात्राओं की शिक्षा के लिए इस संस्था के समान प्रयत्न नहीं किया ।

(2) धार्मिक क्षेत्र में- दयानन्द ने जन्म के आधार पर ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं किया तथा वेदों के अध्ययन का अधिकार केवल ब्राह्मणों तक सीमित रखने की परम्परा का विरोध किया। विभिन्न देवी-देवताओं के स्थान पर उन्होंने एक ईश्वर की उपासना पर बल दिया। उन्होंने मूर्ति पूजा का खण्डन किया। अनेकेश्वरवाद तथा अवतारवाद का भी उन्होंने विरोध किया। उन्होंने ‘वेदों की ओर वापस लौटों’ का नारा बुलन्द किया। वेदों में वर्णित यज्ञों तथा अन्य संस्कारों की व्याख्या करते हुए दयानन्द ने बताया कि हवन करने का उद्देश्य वायुमण्डल को शुद्ध करना है। उन्होंने मोक्ष के सिद्धान्त को अंगीकार किया। उनके अनुसार

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