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भारत की साहित्यिक विरासत को कालिदास के योगदान की विवेचना कीजिए।

भूमिका- कालिदास संस्कृत साहित्य के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। उनकी कवित्व शक्ति तथा प्रतिभा के कारण ही “कविकुल गुरु” उपाधि से उन्हें विभूषित किया गया। वास्तव में कालिदास संस्कृत साहित्य की ...

By India Govt News

Published On: 15 September 2023 - 9:25 PM
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भूमिका- कालिदास संस्कृत साहित्य के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। उनकी कवित्व शक्ति तथा प्रतिभा के कारण ही “कविकुल गुरु” उपाधि से उन्हें विभूषित किया गया। वास्तव में कालिदास संस्कृत साहित्य की मणिमाला के मध्यमणि (सुमेरु) ही हैं। पाश्चात्य एवं भारतीय, प्राचीन व अर्वाचीन विद्वानों की दृष्टि में कालिदास सर्वश्रेष्ठ अद्वितीय कवि हैं, क्योंकि सौन्दर्यशालिनी नाट्यकला में, सर्वातिशायिनी मनोरम काव्य क्षमता में, सरस एवं सुन्दर नीति-काव्यों के उद्द्वारों में, काव्य को प्रासादिक एवं स्वाभाविक शैली में, उर्वर कल्पनाओं के अद्भुत प्रयोग में विश्व का कोई भी कवि उनकी समता नहीं कर सकता। उनकी यह बहुमुखी प्रतिभा ही उन्हें अन्य कवियों की अपेक्षा वैशिष्ट्य प्रतिपादन में सहायक होती है |

परन्तु इतना सब कुछ होते हुए भी खेद की बात यह है कि उनके स्थितिकाल एवं उनके जीवन के विषय में आज तक भी विद्वानों में एकमत नहीं है। कोई इन्हें ईस्वी पूर्व द्वितीय शताब्दी में हुआ सिद्ध करते हैं तो कोई छठी शताब्दी ईस्वी में । भारतीय विद्वान् यदि कालिदास को ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में हुआ मानते हैं, तो अधिकांश पाश्चात्य विद्वान गुप्तकाल में। इनके जन्मकाल के विषय में अधिक चर्चा न करके हमें यहाँ उनके कृतित्व को देखना है, अतः इस को यहीं समाप्त करना उचित है। किसी भी समय में कालिदास क्यों न हुये हों अपनी प्रतिभा के कारण उनका शाश्वत महत्व है।

भारत की साहित्यिक विरासत को कालिदास के योगदान

कालिदास का कृतित्व

महाकवि कालिदास के निम्नलिखित सात काव्य-ग्रन्थ हैं, जिनकी प्रामाणिकता को सभी विद्वानों ने स्वीकृति प्रदान की है— (1) ऋतुसंहार, (2) मेघदूत, (3) कुमारसम्भव (4) रघुवंश, (5) मालविकाग्निमित्र, (6) विक्रमोर्वशी तथा (7) अभिज्ञान शाकुन्तलम। इनमें से प्रथम दो गीति-काव्य हैं, तृतीय तथा चतुर्थ महाकाव्य हैं तथा अन्तिम तीन नाटक हैं। इन कृतियों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार से है-

1. ऋतु-संहार- यह एक गीति-काव्य है। इसमें छः सर्ग हैं और प्रत्येक सर्ग में एक ऋतु, क्रमशः ग्रीष्म, वर्षा, हेमन्त, शिशिर और वसन्त तक छः ऋतुओं का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया गया है। अधिकांश विद्वानों ने ऋतु-संहार को कालिदास की प्रथम कृति माना है। उनकी मान्यता है कि ऋतु-संहार में महाकवि की भावनाओं तथा भाषा का वह परिष्कृत और विकसित रूप नहीं मिलता जो उनकी अन्य रचनाओं में मिलता है ।

2. कुमारसम्भव – महाकवि कालिदास का यह एक उत्कृष्ट महाकाव्य है। इसमें 17 सर्ग हैं । कुमारसम्भव की कथा-वस्तु का आधार शिव पुराण और विष्णु पुराण में वर्णित कथाएँ हैं, किन्तु कालिदास ने अपनी कल्पना के सम्मिश्रण से उन पौराणिक घटनाओं में जो नवीनता, सरलता एवं लालित्य उत्पन्न किया है, उससे यह काव्य मौलिक-सा प्रतीत होता है।

इसके प्रथम सर्ग में पर्वतराज हिमालय के सौन्दर्य का हृदयग्राही वर्णन, दूसरे सर्ग में वसंत ऋतु एवं वन की अनुपम शोभा, तीसरे में शिव की समाधि, चौथे में शिव द्वारा कामदेव का दहन तथा रति का करुण विलाप, पाँचवें में पार्वती की तपस्या तथा बटुवेशधारी शिव और पार्वती में संवाद तथा बाद के सर्गों में शिव-पार्वती विवाह, कुमार कार्तिकेय का जन्म, देवताओं का सेनापति नियुक्त होना तथा तारकासुर-वध आदि का वर्णन है। कुमारसम्भव में पार्वती के यौवन-जनित रूप सौन्दर्य, रति का विलाप तथा शिव-पार्वती विवाह आदि के कतिपय प्रसंग अत्यन्त ही भावपूर्ण, आकर्षक एवं सुन्दर बन पड़े हैं। काव्य कला की दृष्टि से यह बहुत उत्कृष्ट कोटि की रचना है।

3. रघुवंश – कालिदास की रचनाओं में तथा सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में रघुवंश सर्वाधिक ख्याति प्राप्त महाकाव्य है, जिसमें 19 सर्ग हैं। रघवंश का मूल स्रोत वाल्मीकिकृत रामायण है। इसमें रघुवंश के सूर्यवंशी राजा दिलीप से लेकर राम तथा राम के वंशज राजाओं का चरित्र वर्णन है। इसमें दिलीप, रघु, अज, दशरथ, राम, कुश आदि उन्नीस राजाओं की जीवन-घटनाओं और उनके एक सहस्त्राब्दि के बीच के इतिहास को महाकवि ने इस तरह क्रमबद्ध रूप से सजाया है कि बिखरी हुई घटनाओं और कथा के अविरल प्रवाह में कहीं भी विराम और शैथिल्य नहीं आया है रघुवंश में सभी प्रधान रसों का समावेश हुआ है।

वशिष्ठ तथा वाल्मीकि ऋषियों के आश्रमों के वर्णन में शान्त रस का, अज तथा राम के युद्धों के वर्णन में वीर रस का और राजा अग्निवर्ण के विलास-वर्णन में शृंगार रस का सुन्दर निष्पादन हुआ है। रघुवंश की रचना का मूल उद्देश्य रघु की वंश-परम्परा वर्णन के साथ राम की जीवन-घटनाओं का सविस्तार वर्णन करना रहा है। इस लक्ष्य की पूर्ति हेतु राम और उनके जीवन-वृत्त का वर्णन 10वें सर्ग से 16वें सर्ग तक सात सर्गों में किया गया है, जबकि राम के पूर्वज दिलीप, रघु, अज और दशरथ के जीवन-वृत्तों का वर्णन प्रारम्भ के 9 सर्गों में तथा राम के आगे की वंश-परम्परा का वर्णन अन्तिम तीन सर्गों में संक्षिप्त रूप से पूरा कर दिया गया है।

रघुवंश में रघु के पुत्र अज का इन्दुमति से विवाह, कोमल माला के गिरने से इन्दुमति की मृत्यु और अज का करुण विलाप, पुष्पक विमान द्वारा राम और सीता का रमणीय स्थलों का भ्रमण आदि का अत्यन्त मनोरम एवं चित्ताकर्षक चित्रण हुआ है। रघुवंश का प्रत्येक पद पाठक को आनन्दित एवं भाव विभोर कर देता है।

4. मेघदूत – मेघदूत संस्कृत साहित्य का ही नहीं बल्कि विश्व साहित्य जगत का ऐसा महाकाव्य है जिसकी समता का कोई अन्य काव्य नहीं है। मेघदूत एक छोटा-सा खण्ड काव्यस जिसमें दो खण्ड हैं-पूर्व मेघ तथा उत्तर मेघ । इस काव्य में एक यक्ष का वर्णन है, जिसे अपने स्वामी कुबेर के शाप के कारण अपनी पत्नी को अलकापुरी में छोड़कर रामगिरी पर्वत प निर्वासित होना पड़ा था। पत्नी से यह विछोह उसके लिए असहनीय सिद्ध हुआ ।

वर्षा जब उसने एक मेघ को, उत्तर दिशा में पर्वत की ओर जाते देखा, तो उसने उस मेघ को सम्बोधित करते हुए अपनी प्रिया तक अपना विरह-संदेश पहुँचाने का आग्रह किया। पूर्व मेघ में प्रकृति के मनोरम दृश्यों तथा बरसात की उन्मादक रंगीनियों का आकर्षक चित्रण है। इसमें रामगिरी से अलका तक पहुँचने के लिए मार्ग निर्देश किया गया है। उत्तर मेघ सौन्दर्य और प्रेम के नवीनतम अनोखे और अभिरामतम चित्रण से भरा हुआ है। भावाभिव्यंजना तथा प्राकृतिक सौन्दर्य वर्णन की दृष्टि से यह अत्यन्त ही सुन्दर काव्य है ।

5. विक्रमोर्वशीय-विक्रमोर्वशीय नाटक का मूल स्रोत ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण तथा मत्स्य पुराण में वर्णित पुरूरवा और उर्वशी की प्रेम-कथा है। पुरूरवा का देवलोक की अप्सरा उर्वशी से प्रेम होना, निषिद्ध वन में जाने से उर्वशी का लता बन जाना, पुरूरवा का उसके वियोग में पागल होकर इधर-उधर भटकना, संगमनीय मणि द्वारा उर्वशी का पुनः अपने असली रूप में प्रकट होना और अन्त में दोनों का पुनर्मिलन होना आदि का बड़ा मार्मिक चित्रण इस नाटक में हुआ है।

6. मालविकाग्निमित्रम् – यह एक ऐतिहासिक नाटक है। इसमें पाँच अंक हैं। इसमें शुंगवंशीय राजा अग्निमित्र तथा उसकी रानी इरावती की परिचारिका मालविका की प्रेम-कथा है। मालविका अपने लावण्यमय सौन्दर्य से अग्निमित्र का हृदय जीत लेती है। रानी इरावती प्रेम-व्यापार का पता लगने पर मालविका को कारावास में बन्द करवा देती है। अन्त में यह मालूम होने पर कि मालविका भी राजकुमारी है, उसका अग्निमित्र से विवाह हो जाता है । नाट्य कला की दृष्टि से मालविकाग्निमित्र एक अत्यन्त सुन्दर रचना है तथा इसके संवाद बड़े ही आकर्षक एवं हृदय को छूकर झंकृत करने वाले हैं।

7. अभिज्ञान शाकुन्तलम्-कालिदास का यह नाटक समस्त संस्कृत साहित्य का उत्कृष्ट नाटक है। इस नाटक की कथावस्तु के आधार महाभारत और पद्म पुराण के मूलतः वे अंश हैं जिनमें ऋषि विश्वामित्र के तपोभंग, शकुन्तला की उत्पत्ति और दुष्यन्त से प्रेम तथा गन्धर्व-विवाह का वर्णन है। कालिदास ने इस पौराणिक कथानक के आधार पर सात अंकों में हस्तिनापुर के महाराजा दुष्यन्त तथा शकुन्तला के प्रेम, वियोग तथा पुनर्मिलन की कथा का वर्णन किया है।

प्रथम व द्वितीय अंक में राजा दुष्यन्त व शकुन्तला में एक-दूसरे के प्रति अनुराग उत्पन्न होना, तीसरे अंक में दुष्यन्त तथा शकुन्तला का समागम और फिर गान्धर्व विवाह होना, चतुर्थ अंक में ऋषि कण्व द्वारा शकुन्तला को पति-गृह के लिए विदा करना, पंचम अंक में ऋषि दुर्वासा के शाप के कारण दुष्यन्त का शकुन्तला को न पहचानना तथा शकुन्तला का अपनी माता मेनका के साथ मारीच ऋषि के आश्रम में रहना, छठे अंक में अंगूठी के मिलने पर दुष्यन्त को शकुन्तला की याद आना और दुःखी होना, सातवें अंक में स्वर्ग से लौटते समय दुष्यन्त का मारीच ऋषि के आश्रम अपने किया गया है। नाटक के संवाद रोचक और भाषा पात्रों के अनुरूप है।

नाटक में श्रृंगार और पुत्र सर्वदमन (भरत) तथा शकुन्तला से मिलना आदि प्रसंगों का अत्यन्त ही सुन्दर चित्रण किया गया है I नाटक में श्रृंगार और करुण रस का सुन्दर निष्पादन हुआ है। शकुन्तला के हृदय में दुष्यन्त के प्रति प्रेम उत्पन्न होना, दोनों का मिलन और गान्धर्व विवाह में श्रृंगार रस का सुन्दर निष्पादन हुआ है और ऋषि कण्व द्वारा शकुन्तला को पतिगृह के लिये विदा करने के अवसर पर करुण रस का निष्पादन हुआ है। पाँचवें अंक में राजा दुष्यन्त द्वारा अपमानित होकर रोती हुई शकुन्तला के गमन का दृश्य भी बड़ा करुणाजनक है। इस नाटक के सम्बन्ध में तो प्रायः कहा जाता है कि जिसने इस नाटक को नहीं पढ़ा, उसने कुछ नहीं पढ़ा।

निःसन्देह महाकवि कालिदास की साहित्यिक विरासत अमूल्य और महान् है। यही कारण है कि कालिदास की गणना विश्व के महान् और श्रेष्ठ कवियों में की जाती है।

कालिदास की काव्यगत एवं नाटकीय विशेषताएँ

महाकवि कालिदास भारत के ही नहीं अपितु विश्व के महान् साहित्यकारों में गिने जाते हैं। उन्होंने अपनी उत्कृष्ट रचनाओं से संस्कृत-साहित्य के गौरव को पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया है। उनकी रचनाओं से हमें काव्यगत और नाटकीय विशेषताओं का बोध होता है, जिनका संक्षिप्त वर्णन निम्नांकित है-

(1) भाषा और छन्द योजना-अविरल गति से बहती हुई किसी सरिता के समान कालिदास की भाषा में प्रवाह है। उनके समूचे साहित्य में कहीं पर भी अनावश्यक अथवा अनुपयुक्त शब्दों का प्रयोग नहीं मिलता। उनकी भाषा और शैली अत्यन्त परिष्कृत है। किसी विषय के लम्बे चौड़े वर्णन में भी न तो कहीं भाषा में शिथिलता आई है, न सरलता का अभाव हुआ है और न ही शैली का प्रवाह टूट पाया है। भाषा का माधुर्य, उसकी कोमलता, सुन्दर वाक्य-विन्यास और भावानुकूल शब्द चयन उनके साहित्य की प्रमुख विशेषता है ।

महाकवि कालिदास छन्द रचना में भी सिद्धहस्त थे। अपने विभिन्न काव्यों तथा नाटकों में घटना, रस एवं भावों के अनुकूल ही उन्होंने छन्दों का प्रयोग किया है। अपनी छन्द योजना का उन्हें इतना अधिक ध्यान रहता था कि जहाँ कहीं कभी रस और भाव में परिवर्तन होता था, वहीं उसी के अनुरूप उसके छन्द भी बदल गये। इससे उनके विचारों में प्रवाह आने के साथ-साथ छन्द, रस और भाव में सामंजस्य उपस्थित हो गया है।

(2) नीरस विषयों में सरलता-कालिदास ने अपनी अनुपम कल्पना शक्ति और काव्य प्रतिभा के बल से नीरस और शुष्क विषयों में भी कलात्मक सौन्दर्य एवं सरसता उत्पन्न कर दी है। वेद, पुराण, इतिहास, दर्शन आदि विषयों को, जिन्हें अन्य कवि एवं साहित्यकार नीरस समझते रहे, वह भी कालिदास की लेखनी से उतर कर अत्यन्त सरल एवं आकर्षक बन गये। ठूंठ वृक्षों और निर्जन खण्डहरों में भी कालिदास ने सौन्दर्य उत्पन्न किया है।

(3) रूपक एवं उपमाओं का प्रयोग-कालिदास का सम्पूर्ण साहित्य ऐसी असाधारण है और नवीन उपमाओं एवं रूपकों से भरा पड़ा है जो काव्य-रसिकों और साहित्य प्रेमियों को आनन्द विभोर कर देता है। उनकी उपमाएँ ऐसी अनुकूल, सजीव एवं चित्रमयी हैं कि जिनके बिना छन्द पूर्णतया सौन्दर्य विहीन एवं नीरस हो जाते हैं।

उपमाओं के प्रयोग में कालिदास ने प्रकृति के प्रत्येक अंग को छुआ है। गंगा की कलकल करती हुई लहरें, चन्द्रमा की शीतल चांदनी, तारों की जगमगाहट, सूर्य का ताप, हिरण के चंचल नेत्र, खिलते हुए कमल का सौन्दर्य, कोयल की मदभरी कूक, पपीहे की पुकार, मयूर का नृत्य, कलकल करते पानी में हँसों की किलोलें आदि इस प्रकार की अनेक उपमाओं से कालिदास ने अपनी रचनाओं में नई जान डाल दी है।

(4) प्रकृति के साथ तादात्म्य-कालिग का सम्पूर्ण साहित्य प्राकृतिक दृश्यों के सजीव चित्रण से भरा पड़ा है। अभिज्ञान शाकुन्तलम् प्रथम अंक में चंचल हिरणों की क्रीड़ाएँ, आलियों की रागभरी गुंजार, माधवी और केतकी की मादक सुगन्ध, शीतल छाया प्रदान करने पदार्थों की भाँति नहीं आते, बल्कि कालिदास ने इनको इतना सजीव बना दिया है कि वे चेतन वाले कदम्ब और नीम के वृक्ष सभी पाठकों के समक्ष आते हैं, किन्तु वे सब निर्जीव और जड़ प्राणी के समान प्रतीत होते हैं ।

अभिज्ञान शाकुन्तलम् के चौथे अंक में जब ऋषि कण्व शकुन्तला को पति गृह के लिये विदा करते हैं तो आश्रमवासियों के साथ प्रकृति भी दुःखी दिखाई देती है। वृक्ष एवं लताएं शकुन्तला के साथ प्रेम प्रकट करते हैं और कोयल की ध्वनि द्वारा उसे विदाई की स्वीकृति देते हैं। कालिदास ने अपनी रचनाओं में प्रकृति का मानवीकरण कर जिस सूक्ष्मता के साथ वर्णन किया है उससे प्रकृति और मानव हृदय में अन्तर शेष नहीं रह जाता। प्रकृति के साथ मानव की ऐसी तादात्म्यता केवल कालिदास के ग्रन्थों में ही मिलती है।

(5) मानवीय भावनाओं का चित्रण – कालिदास की रचनाओं में मानव हृदय की कोमल भावनाओं एवं विचारों का वर्णन अत्यन्त सुन्दर हुआ है। कालिदास ने मानव हृदय की भावनाओं को इतने सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है कि सहृदय पाठक उनकी रचना के किसी अंश को पढ़कर मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकता । उदाहरणार्थ, जब आश्रम में दुष्यन्त और शकुन्तला एक-दूसरे को देखते हैं तो दोनों के हृदय में प्रेम-भावनाओं की उदात्त तरंगें उत्पन्न होती हैं। यद्यपि दुष्यन्त संकेतों के माध्यम से अपना प्रेम प्रकट करता है, लेकिन शकुन्तला नारी सुलभ लज्जा के कारण, नयन झुकाये मौन रह जाती है। महाकवि ने मनोभावों का अत्यन्त ही सुन्दर चित्रण किया है।

(6) सौन्दर्य वर्णन-कालिदास प्रकृति और मानव के मिलन से अनुपम सौन्दर्य की उत्पत्ति मानते थे। उन्होंने अपने ग्रन्थों में प्रकृति और नारी के यौवनमय लावण्य और सौन्दर्य का हृदयग्राही वर्णन किया है। कुमारसम्भव में हिमालय पर्वत की शोभा का वर्णन, रघुवंश में वशिष्ठ ऋषि का तपोवन तथा त्रिवेणी के सौन्दर्य का वर्णन तथा ऋतु-संहार में सारी ऋतुओं के सौन्दर्य का वर्णन अत्यन्त आकर्षक है। मेघदूत में भी प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन बहुत ही सुन्दर हुआ है। अभिज्ञान शाकुन्तलम् नाटक का प्रथम अंक तो प्राकृतिक दृश्यों के चित्रण से भरा पड़ा है। कालिदास प्रकृति सौन्दर्य के महान् उपासक थे। ऐसा प्रतीत होता है मानो प्रकृति का मनोरम सौन्दर्य ही उनकी भाषा है।

प्रकृति-सौन्दर्य के साथ-साथ कालिदास का नारी-सौन्दर्य वर्णन भी मनमोहक है। ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी नारी-सौन्दर्य में विशेष रुचि थी। कुमारसम्भव में महाकवि ने पार्वती सौन्दर्य का नख-शिख तक वर्णन किया है। अभिज्ञान शाकुन्तलम् में शकुन्तला के यौवन और सौन्दर्य का वर्णन तो अत्यन्त सुन्दर हुआ है।

महाकवि कहते हैं कि शकुन्तला को बनाने के पहले ब्रह्मा ने उसे चित्त में परिकल्पित किया होगा। मेघदूत में यक्ष, मेघ से अपनी पत्नी के सौन्दर्य का वर्णन करता है। परन्तु महाकवि ने नारी के बाह्य सौन्दर्य को प्रधानता न देकर उसके शुभ गुणों सौन्दर्य को प्रधानता दी है । अतः कालिदास ने सौन्दर्य के साथ-साथ मर्यादित व्यवस्था संतुलित जीवन का आदर्श प्रस्तुत किया है, जो एकदम अनूठा है ।

निष्कर्ष

कालिदास भारतीय संस्कृति के उत्कर्ष-काल के प्रतिनिधि कवि हैं। उनका रचनाओं में विशेषतः रघुवंश में राजनीतिक आदर्शवाद का चित्रण है। कालिदास का आदर्श जीवन के भौतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों के बीच सन्तुलित समन्वय है। कवि के अनुसार धन, सम्पत्ति, भौतिक पदार्थ तथा भोग जीवन के लिए आवश्यक है, किन्तु वे जीवन के परम लक्ष्य नहीं हैं। कालिदास ने लोक-कल्याण के लिए लक्ष्मी तथा सरस्वती के मिलन की कामना की है। कालिदास संस्कृत साहित्य के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। उनकी प्रतिभा सर्वतोन्मुखी है। महाकाव्य, नाटक तथा गीति-काव्य सभी क्षेत्रों में उनकी रचनायें अनुपम है।

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