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श्रीलंका के भौतिक स्वरूप को समझाते हुए इसके भौगोलिक प्रदेशों का वर्णन कीजिए।

भौगोलिक स्वरूप- सम्पूर्ण श्रीलंका प्राचीन प्री-केम्ब्रियन युग की रवेदार चट्टानों से निर्मित है जो अत्यधिक परिवर्तित हो गई हैं। द्वीप का आन्तरिक भाग ‘खोण्डलाइट क्रम’ का है जो भारत के ...

By India Govt News

Published On: 16 September 2023 - 7:44 AM
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भौगोलिक स्वरूप- सम्पूर्ण श्रीलंका प्राचीन प्री-केम्ब्रियन युग की रवेदार चट्टानों से निर्मित है जो अत्यधिक परिवर्तित हो गई हैं। द्वीप का आन्तरिक भाग ‘खोण्डलाइट क्रम’ का है जो भारत के तमिलनाडु एवं उड़ीसा का चट्टानों के समान है। यहाँ क्वार्ट्ज, शिस्ट तथा रवेदार चूने का पत्थर मिलता है, जिसका प्रभाव यहाँ के धरातल, जल-व्यवस्था एवं मानव-भूगोल पर पर्याप्त है।

श्रीलंका के प्रमुख खनिज भी इन्हीं क्षेत्रों में मिलते हैं। स्थिर परतदार चट्टानें जाफना प्रायद्वीप पर मिलती हैं, यहाँ समानान्तर रूप में भायोसीन युग के चूने के पत्थर का जमाव है। चट्टानों के अत्यधिक अनावृत्तिकरण के फलस्वरूप अनेक स्थानों पर अपक्षयित मैदान का निर्माण हो गया है।

श्रीलंका के भौतिक स्वरूप को समझाते हुए इसके भौगोलिक प्रदेशों का वर्णन कीजिए।

श्रीलंका के उच्चावच या धरातल में विविधता है, लेकिन अधिकांश धरातल मैदानी है श्रीलंका का पर्वतीय प्रदेश दक्षिणी मध्य भाग में विस्तृत है। इसका विस्तार सेन्ट्रल प्रान्त, युवा प्रान्त तथा साबरागाभुआ प्रान्त में है। इस उच्च प्रदेश की औसत ऊँचाई 1,500 मीटर है तथा इसका सर्वोच्च शिखर पिदुरुतालागाना है जिसकी ऊँचाई 2,524 मीटर है। यहाँ स्थित अन्य शिखर किरीगालपेट, तोतुपोलाकान्डा, कुदालारगाला, आदम शिखर तथा किकिलीमाना है।

पर्वतीय क्षेत्र के चारों ओर क्रमशः ऊँचाई कम होती जाती है जो अन्त में समुद्रतटीय मैदानों में परिवर्तित हो जाती है। उच्चावच की दृष्टि से यहाँ के विशिष्ट प्रदेश हैं—दक्षिण-मध्य के पर्वतीय प्रदेश, दक्षिणी-पश्चिमी निम्न भूमि, पूर्वी प्रदेश, उत्तरी निम्न मैदान प्रदेश, जाफना प्रायद्वीप एवं अन्य समीप के द्वीप। यहाँ अनेक घाटियाँ एवं जलप्रपात भी स्थित हैं। यहाँ की नदियाँ छोटी तथा तीव्र प्रवाहिनी हैं तथा अधिकांश मध्य के पर्वतीय प्रदेश से निकलती हैं। केन्द्रीय पर्वत क्षेत्र से यहाँ अरीय-अपवाह तन्त्र विकसित हुआ है ।

यहाँ वास्तविक बड़ी नदी महावेली गंगा है जिसकी लम्बाई 332 किमी. है। यह मध्य के पर्वतीय भाग से उद्भव होकर मन्नार की खाड़ी में गिरती है। यहाँ की अन्य प्रमुख नदियाँ—कालूगंगा, केनाली, आरुविआरु आदि हैं। अधिकांश नदियाँ बहुत छोटी हैं, यहाँ तक कि अनेक का पानी तालाबों में रोक लिया जाता है।

श्रीलंका के भौगोलिक प्रदेश

श्रीलंका को प्रादेशिक एवं भौगोलिक प्रदेशों में अनेक विद्वानों ने विभक्त किया है, उनके विभाजन में जहाँ कुछ भिन्नता है वहीं समानता भी स्पष्ट है। प्रो. ओ. एच. के. स्पेट द्वारा लिखित पुस्तक ‘भारत, पाकिस्तान एवं लंका’ में फारमर द्वारा श्रीलंका को तीन वृहत् प्रदेशों अर्थात् पश्चिम का निम्न प्रदेश, पहाड़ियाँ एवं शुष्क प्रदेश के निम्न क्षेत्र में विभक्त किया गया है। रॉसन ने ‘दी मानसून लैण्ड्स ऑफ एशिया’ में श्रीलंका को केवल दो प्रदेशों अर्थात् आर्द्र प्रदेश एवं शुष्क प्रदेश में विभक्त किया है।

यहाँ के प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक स्वरूप के आधार पर ई. के. कुक ने भी श्रीलंका को तीन वृहत् एवं अनेक उप-विभागों में विभक्त किया है, उसी को प्रो. स्टाम्प ने स्वीकार किया है। उनके अनुसार श्रीलंका के प्रादेशिक विभाग निम्नलिखित हैं-

(अ) पर्वतीय प्रदेश-श्रीलंका के दक्षिणी-मध्यवर्ती भाग में फैला पर्वतीय प्रदेश एक विशिष्ट प्रदेश है। इसमें अनेक पर्वत श्रेणियाँ हैं जिन्हें गहरी घाटियाँ अथवा चौड़े दलदली मैदान पृथक् करते हैं। इस पर्वतीय प्रदेश का सर्वोच्च शिखर नानुनकूला 2,024 मीटर ऊँचा है।
भौतिक संरचना एवं उच्चावच की दृष्टि से यह देश का वह प्रमुख भाग है जिसके चारों ओर मैदानी भागों का निर्माण बाद में हुआ है। यह क्षेत्र सम्पूर्ण देश का लगभग पाँचवाँ भाग है। विविधता की दृष्टि से यह प्रदेश सबरगमुवा कहलाता है। यहाँ अत्यन्त कटी-छटी तीन पहाड़ियाँ उत्तर से दक्षिण तक लगभग समानान्तर फैली हैं। ये पर्वत-श्रेणियाँ गहरी घाटियों के द्वारा एक-दूसरे से अलग कर दी गयी हैं। इन पर्वत श्रेणियों की साधारण ऊँचाई 1,500 मीटर तथा घाटियों की ऊँचाई 600 मीटर है।

इस प्रदेश में वर्षा का औसत 175 से 500 सेमी. है। सबसे अधिक वर्षा आदम की चोटी पर होती है। तापमान का औसत 15° से. है। सिंहली भाषा में पर्वतों को कैंडी कहते हैं। इस पर्वतीय भाग में किसी समय घने जंगल थे लेकिन अब उन्हें साफ कर दिया गया है तथा उनके स्थान पर यहाँ बागाती खेती की जा रही है। अभी तक वनों के कुछ अवशेष पश्चिमी भाग तथा ऊपरी ढालों पर विद्यमान हैं। पूर्वी भाग में घास से ढका हुआ प्रदेश है, उनमें मुख्य उवा बेसिन है।

इस प्रदेश की घाटियों में सीढ़ीदार खेत बनाकर चावल की खेती की जाती है। किसी समय इस प्रदेश में कहवा भी अधिक पैदा होता था लेकिन उसकी पैदावार घट गयी है। अब इस प्रदेश की मुख्य पैदावार चावल, रबड़, चाय, कोको एवं गरम मसाले हैं। यहाँ का सावारागामुवा जनपद रत्नों तथा कीमती पत्थरों के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है। देश के 90% रत्न इसी क्षेत्र से निकाले जाते हैं।

श्रीलंका के पर्वतीय प्रदेशों के कुछ उपविभाग भी हैं जो निम्नलिखित हैं-

1. आदमपीक क्षेत्र-यह दुर्गम पर्वतीय क्षेत्र है। यहाँ पर्याप्त वर्षा होने से वनों का विस्तार है जिन्हें काटकर चाय बागान विकसित किये गये हैं।

2. हैटन का पठार-इस प्रदेश में सर्वत्र पर्वतीय ढालों पर चाय के बागान विकसित किये गये हैं। हैटन यहाँ का प्रमुख नगर है।

3. उच्च मैदानी प्रदेश-यह पठारी भाग पर स्थित मैदान है। वर्षा की मात्रा कम होने से घास के मैदान स्थित है। यहाँ की जलवायु स्वास्थ्यवर्द्धक है।

4. उवा बेसिन-यह पर्वतीय क्षेत्रों से घिरा हुआ अप्लवर्षा वाला प्रदेश है, जहाँ घास उगती है तथा चावल की कृषि की जाती है । बाहुला यहाँ का प्रमुख नगर है। जलवायु स्वास्थ्यप्रद एवं शुष्क है लेकिन जनसंख्या कम है।

5. तुलुगाला प्रदेश-यह एक दीवार की भाँति फैली हुई पर्वत श्रेणी है जिसके ढाल तीव्र है। वर्तमान समय में यहाँ चाय तथा रबड़ के बागान स्थित हैं ।

6. दक्षिणी पठार-यह एक सीढ़ीनुमा पर्वतीय प्रदेश है। यहाँ आर्थिक विकास कम हो पाया है। फिर भी विकास की दृष्टि से भविष्य का सम्भावित क्षेत्र है।

7. पिड़रू श्रेणियाँ—इसमें अनेक छोटी-छोटी श्रेणियाँ सम्मिलित हैं। यह वनाच्छादित प्रदेश है तथा शीत जलवायु रखता है। यहाँ नुरुलिया नामक स्थान को अंग्रेजों ने पर्वतीय निवास के रूप में विकसित किया, जो अब पर्यटन स्थल है। यहाँ शीतोष्ण कटिबन्ध की कई पैदावारों का उत्पादन करना भी सम्भव है।

8. कैण्डी का पठार-यह सम्पूर्ण पर्वतीय क्षेत्रों में सर्वाधिक विकसित है। कृषि, उद्योग, परिवहन सुविधा का यहाँ विकास हुआ है। यह इस देश का इतिहास प्रसिद्ध अधिक विकसित एवं घनी जनसंख्या वाला भाग है। केण्डी नगर जिसका सिंहली नाम महानुवारा था, का एक राजधानी के रूप में विकास किया गया है। यह समस्त पर्वतीय प्रदेश का मुख्य व्यापारिक नगर है। यह नगर 500 मीटर की ऊँचाई पर एक झील के किनारे पर स्थित है। यह कोलम्बो तथा देश के अन्य मुख्य नगरों से रेलमार्गों द्वारा जुड़ा हुआ है। यहाँ भगवान बुद्ध का एक मन्दिर है जहाँ पर भगवान बुद्ध का एक दाँत सुरक्षित है।

इसलिए यह बौद्धों का प्रसिद्ध तीर्थस्थान है। प्रतिवर्ष हजारों यात्री यहाँ दर्शनार्थ आते हैं। अगस्त माह में पेराहेरा उत्सव के समय यात्रियों को उस दाँत के दर्शन कराये जाते हैं अतः यात्रियों की संख्या बढ़ जाती है। उनकी आवश्यकता की पूर्ति के लिए कई नयी दुकानें एवं आवासगृह लग जाते हैं। केण्डी तथा अनुराधापुर में यात्रियों सुविधा एवं व्यवस्था के लिए प्रयत्न सरकारी एवं अर्द्ध-सरकारी संस्थाओं के माध्यम से किये जाते हैं। इस प्रदेश के आस-पास के भागों में चाय के बागानों का भी विकास किया गया है। सारे प्रदेश में छोटे-छोटे गाँव बसे हुए हैं। पहाड़ी ढालों के ऊपर बागान मालिकों के एकाकी बंगले हैं। टेलडेनिया और वाटेगांमा पूर्व के मुख्य केन्द्र है ।

9. दालोस्वागे प्रदेश – यह महावेली गंगा बेसिन के मध्य पर्वतीय क्षेत्र से कुछ अलग है। वनों को साफ करके यहाँ रबड़ बागान लगाये गये हैं।

10. उत्तरी-पश्चिमी उच्च क्षेत्र – यह पर्वतीय एवं मैदानी प्रदेश के मध्य स्थित क्षेत्र है, जहाँ रबड़, नारियल और कोको के बागान हैं।

11. मताले घाटी-यह तीन ओर से पर्वतीय क्षेत्रों से घिरी हुई है। पर्वतीय ढालों पर रबड़, चाय एवं घाटी में चावल की खेती की जाती है। घाटी के ढालों पर सीढ़ीदार चावल के खेत हैं तथा इस भाग के पर्वतीय ढालों पर चाय, रबर एवं कोको के बागान हैं। यहाँ दक्षिण में केण्डी नगर को जोड़ने वाला मार्ग है। इस घाटी में महावेली गंगा की सहायक अम्बान गंगा बहती है ।

12. मुड़ी हुई पहाड़ियों का क्षेत्र-मताले घाटी से पूर्व में मुड़ी हुई पहाड़ियाँ स्थित हैं। इस क्षेत्र में उत्तरी-पूर्वी मानसूनों से वर्षा होती है। यह भूमि चेना कृषकों का निवास है ।

13. साबरगमुवा पहाड़ी क्षेत्र – यह अत्यन्त दुर्गम पर्वतीय प्रदेश है, जिसमें पर्वत श्रेणियाँ उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व की ओर जाती है। इन समानान्तर श्रेणियों के मध्य गहरी घाटियाँ स्थित हैं। यहाँ रत्नपुरा के निकट हीरा प्राप्त होता है जो रत्न, जवाहरात आदि कीमती पत्थरों के व्यवसाय का केन्द्र है। इस क्षेत्र में अब भी जंगली हाथी मिलते हैं।

(ब) मैदानी अथवा निचला प्रदेश

इसके अन्तर्गत श्रीलंका के दक्षिणी-पश्चिमी निम्न प्रदेश, दक्षिणी-पूर्वी शुष्क प्रदेश, तटीय प्रदेश, उत्तर-मध्य प्रदेश, तलावा प्रदेश तथा चिलावा प्रदेश सम्मिलित हैं। इनका संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है-

1. दक्षिणी-पश्चिमी निचला प्रदेश- यह श्रीलंका का विकसित एवं सघन बसा हुआ प्रदेश है। यहाँ सिंहली लोगों का अधिक निवास है और इसी प्रदेश में उनकी संस्कृति का विकास हुआ है। इस प्रदेश में वर्षा अधिक होती है, फलस्वरूप बाढ़ का प्रकोप भी यदा-कदा होता रहता है । तटीय भागों में मुसलमानों की संख्या अधिक है। ये मुख्यतः मछुए एवं नाविक हैं। इस प्रदेश में वर्षा मुख्यतः 200 से 300 सेमी तक होती है जो अधिकांशतः दक्षिण-पश्चिमी मानसून हवाओं से होती है। मूसलाधार क्षणिक वर्षा के कारण इस प्रदेश में बाढ़ें अधिक आती हैं। इस क्षेत्र को बाढ़मुक्त करने के लिए जल-निकास की बड़ी योजनाएँ क्रियान्वित करने की आवश्यकता है। इस प्रेश की मुख्य पैदावार चावल है।

यहाँ वर्ष में चावल की दो फसलें पैदा की जाती हैं। पहाड़ी ढालों पर प्रत्येक खेतीहर किसान के पास नारियल, आम, एरेकानट, चाय आदि के वृक्षों के मिश्रित वन होते हैं। ऊँचे पहाड़ी ढालों पर रबड एवं चाय के बागान हैं। झीलों के पानी में नारियल के कटे पेड़ डालकर उनके रेशे अलग किये जाते हैं जिससे रस्सियाँ, टोकरियाँ एवं चटाइयाँ बनाने का कुटीर उद्योग चलता है। तटीय प्रदेश की कम उपजाऊ रेतीली मिट्टी पर दाल-चीनी के पेड़ उगाये जाते हैं। इलायची, काली मिर्च एवं लौंग की भी पैदावार होती है। इस क्षेत्र में उगने वाली एक विशेष प्रकार की सिट्रोनेला घास निर्यात की वस्तु है।

इससे एक विशेष प्रकार का तेल भी निकाला जाता है। इसकी पैदावार का मुख्य क्षेत्र दक्षिणी-पश्चिमी भाग है। इस देश की वर्तमान राजधानी कोलम्बो इसी प्रदेश के पश्चिमी समुद्रतट पर स्थित है। यह एक उत्तम पत्तन की तरह विकसित किया गया है। यहाँ प्रतिवर्ष कई विदेशी व्यापारिक जहाज आते-जाते रहते हैं। हिन्द महासागर में इस बन्दरगाह की स्थिति बड़ी महत्त्वपूर्ण है। इस प्रदेश के अन्य मुख्य नगर नेगोम्बो, मतारा आदि नदियों के समुद्री मुहानों पर स्थित हैं। प्रदेश के दक्षिणी भाग में गाले एक छोटा प्राकृतिक बन्दरगाह है।

2. दक्षिणी-पूर्वी शुष्क प्रदेश- इस प्रदेश को हम्बनटोटा के नाम से भी पुकारा जाता है। इस प्रदेश में 125 सेमी. से भी कम वर्षा होती है। इसमें भी अनिश्चितता अधिक रहती है। यहाँ का तापमान ऊँचा रहने से वाष्पीकरण भी अधिक होता है। पहले इस प्रदेश में तालाबों से सिंचाई की सुविधा थी लेकिन अब अधिकांश सूख गये हैं । उनको फिर से विकसित करने के प्रयास किए जा रहे हैं। यहाँ कँटीली झाड़ियाँ तथा एवोन एवं स्टीन-वुड के वृक्ष मिलते हैं। इस प्रदेश में वर्षा अपेक्षाकृत कम होती है, अतः सिंचाई से ही कृषि की जाती है। मूँगफली तथा कपास का उत्पादन इस प्रदेश में किया जाता है। जहाँ पर्याप्त सिंचाई सुविधा है, वहाँ चावल भी उत्पादित किया जाता है।

3. पूर्वी तटीय प्रदेश – यह प्रदेश 15 से 45 किमी. चौड़ा तटीय प्रदेश है। तटीय प्रदेशों में छोटी-छोटी झीलें स्थित हैं। नारियल के वृक्षों के लिए ये उपयुक्त हैं। चावल की कृषि भी यहाँ की जाती है। ट्रिंकोमाली तथा वैहिओआ यहाँ के प्रमुख नगर हैं। इनमें ट्रिकोमाली यहाँ का प्राकृतिक बन्दरगाह है।

4. उत्तर-मध्य प्रदेश- यह प्रदेश उत्तर के लगभग आधे भाग को घेरे हुए है। यह प्रदेश प्राचीनकाल में सघन बसा था लेकिन मलेरिया एवं अन्य बीमारियों के प्रकोप से लोग यहाँ से अन्यत्र चले गये । अब पुनः यहाँ की सरकार यहाँ बसाव का कार्य कर रही है। अनुराधापुर यहाँ का प्रमुख नगर है। इसी नाम का प्राचीन नगर भी यहाँ था जिसके अवशेष मिलते हैं

5. तलावा प्रदेश-मध्य-दक्षिणी पर्वतीय प्रदेश एवं पूर्वी तटीय प्रदेश के मध्य यह प्रदेश स्थित है। यहाँ सवाना घास के मैदान है, जिनको साफ कर कृषिक्षेत्र में परिवर्तित करने की योजनाएँ बनाई जा रही हैं।

6. चिलावा प्रदेश- यह पश्चिमी तट पर स्थित संक्रमण प्रदेश है जिसके दो ओर निचला प्रदेश तथा एक ओर पर्वतीय प्रदेश है। यहाँ सीमित मात्रा में कृषि की जाती है।

(स) जाफना प्रायद्वीप और उत्तरी चूना-प्रदेश

इस प्रदेश में विस्तृत चूने का जमाव है, जो मायोसीन काल का है। चूना-प्रदेश होने के कारण यहाँ का उच्चावच, कृषि आदि अन्य प्रदेशों से भिन्न है। यहाँ सघन कृषि का प्रचलन है। पूर्वी क्षेत्र में अनेक लवण युक्त झीले हैं। चूना-प्रदेश में मात्र कँटीली झाड़ियाँ उगती है। तटीय प्रदेश में अवश्य ही नारियल उगता है। मन्नार की खाड़ी पर मन्नार प्रायद्वीप में तलाईमनार यहाँ का प्रमुख बन्दरगाह है। यहाँ तक भारत के लिए रेलमार्ग है। यहाँ से 38 किमी. दूर भारत का धनुषकोटि रेलवे स्टेशन है। दोनों के बीच फेरी मार्ग है। इस प्रदेश में भी मलेरिया का प्रकोप अधिक होता है। इसके प्रभाव से जनसंख्या का घनत्न भी कम है। मन्नार की खाड़ी में मोती की सीपें मिलती है। यहाँ से मोती एवं सीपें निकालकर विदेशों को भेजे जाते हैं ।

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