मिट्टियों के वितरण का विवरण तथा बताइए कि कृषि की दृष्टि से इनका क्या महत्त्व है ?

By India Govt News

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(1) लैटराइट मिट्टी- मिट्टियों के वितरण का विवरण तथा बताइए कि कृषि की दृष्टि से इनका क्या महत्त्व है ?उष्ण कटिबन्धीय भारी वर्षा के कारण होने वाली तीव्र निक्षालन क्रिया के कारण इस मिट्टी का निर्माण हुआ। यह मिट्टी चौरस उच्च भूमियों पर मिलती है। बहुत अधिक वर्षा वाले पश्चिमी तटीय प्रदेश में भी लैटराइट मिट्टी का विस्तार है। यह पठार के पूर्व किनारे पर एक-दूसरे से अलग छोटे-छोटे टुकड़ों में पाई जाती है। शुष्क मौसम में यह मिट्टी सूखकर इतनी सख्त हो जाती है कि इसे देखकर हमें चट्टान की सी भ्रान्ति होने लगती है। गीली होने पर यह दही की तरह लिपलिपी सी हो जाती है ।

मिट्टियों के वितरण का विवरण तथा बताइए कि कृषि की दृष्टि से इनका क्या महत्त्व है ?

मिट्टियों के वितरण का विवरण

यह मिट्टी लगभग 1.26 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र में पाई जाती है। यह मिट्टी विशेषकर व पश्चिमी घाट के समीप, राजमहल पहाड़ियों, दक्षिणी महाराष्ट्र, केरल के लगभग सभी जिलों, कर्नाटक के चिकमंगलूर, शिमागा, उत्तरी व दक्षिणी कनारा, दुर्ग, बेलगाम, धारवाड़, बीदार बंगलौर व कोलार जिलों के कुछ क्षेत्रों में, आन्ध्र प्रदेश के मेंढक, नेल्लोर व गोदावरी जिलों में; उड़ीसा के लालासोर, कटक, गंजाम, मयूरभंज और सुन्दरगढ़ जिलों में तथा पश्चिमी बंगाल के मिदनापुर जिले में मिलती है।

इसके अतिरिक्त असम के शिवसागर, लखीमपुर, उत्तरी कछारी पहाड़ियों व नवगाँव जिलों में तथा मेघालय के गारो पहाड़ी क्षेत्रों में लैटराइट मिट्टी पाई जाती है। सभी लैटराइट मिट्टियों में चूने और मैग्नीशियम का अंश कम होता है तथा नाइट्रोजन की भी कमी होती है। कहीं-कहीं इसमें फास्फोरिक एसिड की मात्रा अधिक पाई जाती है। इसमें पोटाश नहीं होता । निम्न भाग की लैटराइट मिट्टियों में उर्वरकों की सहायता से गन्ना, रागी व चावल का उत्पादन किया जाता है। ऊपरी भागों में चारे की फसलें उगायी जाती हैं।

लेटेराइट मिट्टी की विशेषताएँ-ये मिट्टियाँ कई प्रकार की होती हैं। पहाड़ियों पर पाई जाने वाली मिट्टियाँ बहुत उपजाऊ होती हैं, उसमें नमी भी नहीं ठहर सकती। इसके विपरीत निम्न भूमियों पर इस मिट्टी के साथ चिकनी और दोमट भी मिली पायी जाती है। इसमें नमी काफी समय तक के लिए ठहर सकती है। इस मिट्टी में चूना, फास्फोरस और पोटाश कम पाया जाता है किन्तु जीवांश यथेष्ट मात्रा में होता है। इस मिट्टी पर किये गये रासायनिक परीक्षणों में लोहा 18.7%, सिलिका 32.62%, एल्यूमिना 25.28%, फॉस्फोरस 0.42%, चूना 0.42% और अघुलनशील तत्व मिले हैं।

(2) मरुस्थलीय मिट्टी—उत्तरी विशाल मैदान के दक्षिणी-पश्चिमी भाग में थार का रेगिस्तान है, जो पश्चिमी राजस्थान, दक्षिणी हरियाणा व उत्तरी गुजरात राज्यों में विस्तृत है। यहाँ वर्षा बहुत कम होती है और हवा द्वारा उड़ाकर लाये हुए रेत के टीले बनते रहते हैं। इसलिए इस प्रदेश की मिट्टी उपजाऊ होती है। इसमें खनिज नमक अधिक मात्रा में पाये जाते हैं, किन्तु ये शीघ्र घुल जाते हैं। सिंचाई के सहारे यहाँ खेती की जाती है। जहाँ सिंचाई की सुविधा उपलब्ध नहीं है वहाँ पर फसलें पैदा नहीं की जा सकती हैं। इस मिट्टी में फास्फेट की मात्रा अधिक, परन्तु नाइट्रोजन की कमी होती है।

मरुस्थलीय मिट्टी की विशेषताएँ

इस मिट्टी में बालू के कणों की प्रधानता मिलती है। इस मिट्टी में जीवांश बहुत कम तथा नमक अधिक मात्रा में होता है। इस मिट्टी में नाइट्रोजन बहुत कम तथा फास्फोरस पर्याप्त मात्रा में मिलता है।

(3) लवणीय व क्षारीय मिट्टी—इस तरह की भूमि पर सफेद रंग की परत सी बिछ जाती है जिससे भूमि बेकार हो जाती है मगर कोई पैदावार नहीं होती। इस भूमि को ऊसर या कल्लर भूमि भी कहते हैं। इसमें सोडियम, कैल्शियम व मैग्नीशियम लवणों की मात्रा अधिक होती है। हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, कच्छ के रन, सुन्दरवन आदि क्षेत्रों के अर्द्धशुष्क व शुष्क क्षेत्रों में इन मिट्टियों के बिखरे हुए क्षेत्र महाराष्ट्र, उड़ीसा व केरल के तटीय भागों, राजस्थान, पंजाब, पाये जाते हैं।\भारत में लगभग 70 हैक्टेयर भूमि में लवणों व क्षारों की अधिकता होने से खेती द्वारा सिंचाई वाले भागों में सोडियम, कैल्शियम व मैग्नीशियम लवणों के अधिक मात्रा में निक्षेप नहीं की जा सकती है। इस तरह की भूमि को खेती योग्य बनाने के लिये भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने 1969 में केन्द्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान की स्थापना करनाल में की थी। इन मिट्टियों में सुधार के पश्चात् धान व गेहूँ की खेती की जा सकती है।

(4) पर्वतीय मिट्टी-पर्वतीय मिट्टियों में पीट, मीडो, वन्य तथा पहाड़ी मिट्टियाँ शामिल होती हैं। वन्य मिट्टियाँ वास्तव में अभी निर्माण की प्रक्रिया में हैं। इन मिट्टियों का विस्तार देश की लगभग 9% भूमि पर है। नदियों की घाटियों और पहाड़ी ढालों पर ये अधिक गहरी होती हैं। पहाड़ी ढालों पर हल्की बलुई, छिछली व छिद्रमय मिट्टियाँ पाई जाती हैं जिनमें वनस्पति का अंश कम होता है। पश्चिमी हिमालय के ढालों पर अच्छी बालू मिट्टी मिलती है। मध्य हिमालय की मिट्टियाँ वनस्पति के अंश की अधिकता के कारण अधिक उपजाऊ हैं। मध्य हिमालय की ‘मिट्टियों का अपेक्षाकृत कम विकास हुआ है।

नैनीताल, मंसूरी, चकरोता के निकटवर्ती स्थानों में चूना व डोलोमाइट से बनी मिट्टियाँ पाई जाती हैं। इनमें चीड़, साल के वृक्ष उगते हैं तथा कहीं-कहीं घाटियों में चावल भी उगाया जाता है। काँगड़ा, देहरादून, उत्तरी बंगाल के दार्जिलिंग तथा असम राज्य के पहाड़ी ढालों पर चाय मिट्टी अधिकता से पाई जाती है। हिमालय के दक्षिणी भाग में पथरीली मिट्टी अधिक पाई जाती है। नदियाँ इन्हें निचले ढालों पर जमा कर देती हैं। इस मिट्टी के कण मोटे होते हैं तथा इसमें कंकड़-पत्थर के टुकड़े भी मिले रहते हैं। टरशियरी मिट्टी दून घाटियों व काश्मीर घाटी में पाई जाती है। यहाँ इसमें चावल, आलू व चाय की फसलें उगाई जाती हैं ।

मृदा से सम्बन्धित समस्याएँ एवं संरक्षण

मिट्टी से सम्बद्ध अनेक समस्याओं में से एक समस्या मिट्टी का कटाव है। इससे उपजाऊ भूमि भी कृषि के अयोग्य बन जाती है। धरीतल की मिट्टी का धीरे-धीरे स्थान छोड़ना या कट-कटकर अपने स्थान से बह जाना मिट्टी का कटाव कहलाता है। अनुमान है कि देश की एक-चौथाई भूमि में मिट्टी का कटाव हो रहा है। रााजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड व बिहार राज्यों में इससे बहुत अधिक क्षति पहुँची है।

मिट्टियों के वितरण का विवरण

मिट्टी के कटाव के कारण

  • वनों की कटाई के कारण भूमि नग्न सी पड़ी है और आसानी से पवन तथा वर्षा की चपेट में आ जाती है ।
  • चरागाहों को खेतों में परिवर्तित करने तथा अनियंत्रित पशुचारण से मृदा का कटाव होता है ।
  • ग्रीष्म ऋतु में खाली खेतों में पवनें वेग से चलती हैं। उस समय उपजाऊ मृदा पवनों के साथ उड़ जाती है।

संरक्षण के उपाय

  • वृक्षारोपण करना ।
  • नालियों पर बांध बनाना तथा अवरोध लगाना ।
  • पहाड़ी ढालों पर सीढ़ीनुमा खेत बनाना ।
  • खेतों की मेड़ें मजबूत करना ।
  • पशुचारण को व्यवस्थित करना ।
  • ढालू भूमि पर गोलाई में समोच्च रेखाओं की तरह जुताई करना ।
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