धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में राजा राममोहन राय के योगदान का मूल्यांकन कीजिए

By India Govt News

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राजा राममोहन राय भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत थे। उनका जन्म 22 मई, 1772 ई. को बंगाल के राधानगर नामक गाँव में हुआ था। उनके माता-पिता रूढ़िवादी ब्राह्मण थे। राममोहन राय को 12 वर्ष की आयु में अरबी और फारसी पढ़ने के लिए पटना भेजा गया। इस्लाम और ईसाई धर्म-प्रचारकों का राममोहन राय पर गहरा प्रभाव पड़ा और मूर्तिपूजा से उनका विश्वास समाप्त हो गया। घर लौटने पर मूर्तिपूजा के प्रश्न पर राममोहन राय का अपने पिता से गहरा मतभेद हो गया । परिणामस्वरूप उन्हें घर छोड़ना पड़ा और कई वर्षों तक निर्वासित के रूप में रहना पड़ा। उन्होंने भारत के विभिन्न भागों का भ्रमण किया।

धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में राजा राममोहन राय के योगदान का मूल्यांकन कीजिए

राजा राममोहन राय ने 1805 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी में नौकरी कर ली। 1815 ई. में उन्होंने अंग्रेजी कम्पनी की नौकरी छोड़ दी और कलकत्ता में स्थायी रूप से रहने लगे। राजा राममोहन राय एक महान विद्वान थे। उन्होंने अरबी, फारसी, संस्कृत, अंग्रेजी, लेटिन और हिब्रू आदि भाषाओं का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। उन्होंने 1815 ई. में ‘आत्मीय समाज’ तथा 1828 ई. में ‘ब्रह्म समाज’ की स्थापना की। नवम्बर, 1830 ई. में राममोहन राय इंग्लैण्ड गए जहाँ उनका 1833 ई. में देहान्त हो गया ।

राजा राममोहन राय की भारतीय समाज को देन

राजा राममोहन राय ने धार्मिक, सामाजिक, शैक्षिक आदि क्षेत्रों में उन सुधारों के लिए कार्य किया जिनसे आधुनिक स्वस्थ भारत का निर्माण हुआ। उन्होंने अप्रलिखित सुधारों के लिए कठिन प्रयास किए-

1. धार्मिक सुधार-राजा राममोहन राय ने हिन्दू धर्म में अन्धविश्वास एवं कुरीतियाँ देखीं। उन्होंने धर्म में सत्य की तलाश की। उन्होंने ईसाई धर्म, इस्लाम धर्म और हिन्दू धर्म का अध्ययन किया तथा इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सभी धर्मों में एकेश्वरवाद का सिद्धान्त प्रचलित है। राजा राममोहन राय सभी धर्मों को आदर की दृष्टि से देखते थे। वे किसी धर्म के प्रति कोई द्वेष नहीं रखते थे। मुसलमान उनको एक मुसलमान समझते थे, ईसाई उनको एक ईसाई समझते ये तथा हिन्दू वेदान्ती समझते थे। वे वास्तव में मौलिक सत्य एवं सभी धर्मों की एकता में विश्वास करते थे।

राजा राममोहन राय कोई पैगम्बर नहीं थे, वे तो केवल एक धर्म सुधारक थे जो सत्य तथा शुद्ध को संरक्षित रखना चाहते थे तथा झूठ व अन्धविश्वास को दूर करना चाहते थे । विचारवान भारतीयों के मार्ग में कोई बाधा न आए, इसलिए उन्होंने धर्म में अपेक्षित सुधार लाने के लिए कठिन प्रयास किए। उन्होंने धर्म की मौलिकता को बनाये रखते हुए उसको भारतीय लोगों की नवीन आवश्यकताओं के अनुरूप बनाया। उन्होंने ब्रह्म समाज की स्थापना की, जिसने हिन्दू धर्म की बुराइयों को दूर किया और वेदों एवं उपनिषदों की शिक्षाओं के आधार पर उसे एक ईश्वर की पूजा का आधार बनाया। उन्होंने आधुनिक पाश्चात्य विचारों के सर्वोत्तम पहलू को अपने धर्म में सम्मिलित किया।

उन्होंने प्रत्येक चीज को मानवीय तर्क की कसौटी पर कसा और फिर निर्णय किया कि अतीत एवं वर्तमान के धार्मिक सिद्धान्तों तथा व्यवहार में क्या अर्थपूर्ण था एवं क्या निरर्थक था। इसी आधार पर उन्होंने धार्मिक लेखों के अर्थ स्पष्ट करने के लिये पुजारी एवं पुरोहितों के महत्व को नकार दिया। उनके द्वारा चलाये गये ब्रह्म समाज ने मूर्ति- पूजा, अन्धविश्वास एवं कर्मकाण्ड को त्याग दिया। इस प्रकार उन्होंने धर्म को आधुनिक भारत की परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुकूल बनाया ।

2. सामाजिक सुधार-राजा राममोहन राय ने सामाजिक क्षेत्र में भी अनेक सुधार किये । उन्होंने स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए निम्न कार्य किये-

(i) सती-प्रथा का अन्त-राजा राममोहन राय ने सामाजिक क्षेत्र में सबसे अधिक सुधार कार्य स्त्रियों की दशा का किया। स्त्रियों की दशा उस समय बहुत गिरी हुई थी। विवाहित स्त्रियों को उनके पति की मृत्यु होने पर उनके पति के साथ ही चिता पर जीवित जला दिया जाता था। इसे सती-प्रथा कहते थे। इस प्रथा के अनुसार पत्नी की इच्छा के विरुद्ध पत्नी को जबरन पति की चिता पर रख कर अग्नि को समर्पित कर दिया जाता था। पत्नी के रोने-चिल्लाने की आवाज को दबाने के लिए ढोल-नगाड़े बजाये जाते थे। उन्होंने इस अमानवीय प्रथा को समाप्त करने के लिये मंच तथा समाचार-पत्र दोनों के माध्यम से प्रचार किया।

लेकिन राजा राममोहन राय के इन विचारों का इतना विरोध किया गया कि उनका स्वयं का जीवन खतरे में पड़ गया। परन्तु राजा राममोहन राय अपने विरोधियों के कार्यों से तनिक भी विचलित नहीं हुए। परिणामस्वरूप लार्ड विलियम बैंटिक ने सन् 1829 ई. में सती-प्रथा पर प्रतिबन्ध लगा दिया। इस प्रतिबन्ध के विरोधस्वरूप रुढ़िवादी लोगों ने इंग्लैण्ड की प्रिवी काउन्सिल में अपील की लेकिन वहाँ यह अपील रद्द कर दी गई। इस प्रकार सती-प्रथा का अन्त कराकर राजा राममोहन राय विश्व के मानव सुधारकों की प्रथम पंक्ति में आ गये।

(ii) बहु-विवाह का विरोध-पुरुष पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था चाहे वह कितनी ही स्त्रियों से विवाह कर ले। इसने स्त्रियों की दशा को बहुत ही दयनीय बना दिया था। स्त्रियों में शिक्षा का प्रसार नहीं था। स्त्रियाँ प्रायः विवाह के बाद पति पर ही उसकी इच्छाओं के अनुकूल रहने के लिए बाध्य थीं। राजा राममोहन राय ने बहु-विवाह के विरुद्ध आवाज उठाई जिससे धीरे-धीरे इस प्रकार का वातावरण तैयार हुआ जिसमें बहु-विवाह हतोत्साहित किये गये ।

(iii) विधवा-विवाह का समर्थन-राजा राममोहन राय के समय में पत्नी को पति की मृत्यु पर उसकी चिता में उसके साथ ही जला दिया जाता था । अतः विधवा की उपस्थिति तथा उसके पुनः विवाह का कोई प्रश्न ही नहीं था। सती प्रथा की समाप्ति पर विधवाओं की समस्याएँ सामने आई। राजा राममोहन राय ने महसूस किया कि विधवाओं का पुनः विवाह करके उनकी । अतः उन्होंने विधवाओं के पुनर्विवाह की आवाज सभी समस्याओं का समाधान हो सकता है

(iv) बाल-विवाह का विरोध तथा अर्न्तजातीय विवाह की वकालत करके भी राजा राममोहन राय ने भारतीय नारियों की दशा सुधारने के लिये कार्य किया ।

(v) स्त्री शिक्षा की वकालत-स्त्रियों में शिक्षा का अभाव होने के कारण ही स्त्रियों की ऐसी हीन दशा थी। राजा राममोहन राय ने लड़कियों तथा स्त्रियों की शिक्षा के प्रसार के लिए पर्याप्त दृढ़ प्रयास किये ।

(vi) स्त्रियों का पैतृक सम्पत्ति में अधिकार के समर्थन में आवाज उठाने वाले राजा राममोहन राय पहले व्यक्ति थे । यद्यपि राजा राममोहन राय सती-प्रथा की समाप्ति कराने का ठोस कार्य ही कर पाये थे तथापि उन्होंने स्त्रियों की दशा में सुधार लाने के लिये अन्य प्रयत्न करके, इस प्रकार के सुधारों को आगे ठोस रूप लेने के लिये उपयुक्त वातावरण एवं मार्ग तैयार किया ।

3. शिक्षा के क्षेत्र में सुधार – शिक्षा के क्षेत्र में राजा राममोहन राय ने अकथनीय एवं प्रशंसनीय कार्य किये। वे शिक्षा में आधुनिकता लाने के प्रबल समर्थक थे । वे हिन्दू शिक्षा को यूरोपीय शिक्षा के वैज्ञानिक आदर्श पर संगठित करना चाहते थे। इसी उद्देश्य से उन्होंने भूगोल, ज्योतिष-शास्त्र, ज्यामिति, व्याकरण आदि अनेक विषयों पर बंगाली में पाठ्य-पुस्तकें लिखीं। सन् 1819 ई. में पाश्चात्य शिक्षा को अपना समर्थन प्रदान करने के लिये उन्होंने कलकत्ता में हिन्दू कॉलेज की स्थापना की ।

4. राजनीतिक क्षेत्र में सुधार – राजनीतिक क्षेत्र में देशवासियों के लिये स्वतन्त्रता की मांग करके उन्होंने अपने को एक देशभक्त के रूप में प्रदर्शित किया। सन् 1819 में उन्होंने एक बंगाली समाचार-पत्र प्रारम्भ किया जो कि भारतीय समाचार-पत्रों का जनक है। उसके साथ ही उन्होंने एक फारसी पत्र, वैदिक विज्ञान के अध्ययन के लिए ‘वेद-मन्दिर’ नामक एक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया। उन्होंने अपने देश के जनमत को शिक्षित किया। सन् 1831 से 1833 ई. तक अपने इंग्लैण्ड प्रवास के दौरान राजा राममोहन राय ने ब्रिटिश भारत में प्रशासनिक सुधारों के लिये आन्दोलन किया। उन्होंने भारतीय प्रशासन के सभी विभागों के लिये व्यावहारिक सुझाव दिये । उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को भी शांतिपूर्ण तरीके से सुलझाने के सुझाव दिये ।

5. साहित्यिक क्षेत्र में उनकी देन –राजा राममोहन राय ने साहित्यिक क्षेत्र में भी अपना योगदान दिया। वे कई भाषाओं के ज्ञाता थे तथा कई भाषाओं में उन्होंने प्रचुर मात्रा में लिखा। उनको आधुनिक बंगाली गद्य के जनकों में से एक माना जाता है ।

राजा राममोहन राय का मूल्यांकन

राजा राममोहन राय भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत थे। वे प्रथम भारतीय सुधारक जिन्होंने अन्धविश्वासों, रूढ़ियों और कुरीतियों से पीड़ित भारतीय समाज को उन्नत और प्रगतिशील बनाने पर बल दिया था। इसी कारण राजा राममोहन राय को प्रगतिशील सुधारों का ‘प्रथम ईश्वरीय दूत’ और नवीन युग का ‘अग्रदूत’ कहकर पुकारा जाता है।

मिस फॉलेट का कथन है-“इतिहास में राममोहन राय ऐसे जीवित पुल के समान हैं जिस पर भारत अपने अपरिमित-भूतकाल से अपने अपरिमित भविष्य की ओर चलता है। वे एक ऐसे वृत्तखण्ड थे जो प्राचीन जातिवाद और अर्वाचीन मानवता, अन्धविश्वास तथा विज्ञान, अनियन्त्रित सत्ता तथा प्रजातन्त्र, स्थिर रिवाज तथा अनुदार प्रगति के बीच की खाई को ढाँपे हुए थे।” विपिनचन्द पाल ने लिखा है-“राजा राममोहन राय ही प्रथम भारतीय थे जिन्होंने भारतीय स्वतन्त्रता का संदेश प्रसारित किया। वे चाहते थे कि भारत में शीघ्र ही आधुनिक प्रजातन्त्र की प्रणाली स्थापित कर दी जाए ताकि भारत शीघ्र ही सभ्य और स्वतन्त्र देशों के समकक्ष हो सके।” रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उचित ही कहा था कि “राममोहन राय ने भारत में आधुनिक युग का सूत्रपात किया।”

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