भारत की स्वाधीनता से पूर्व देश में 562 रियासतें थीं । समस्त भारत का 40% क्षेत्र तथा 25% जनसंख्या इन रियासतों में निवास करती थी। प्रशासन, क्षेत्रफल, जनसंख्या और वित्तीय संसाधनों की दृष्टि से इन राज्यों में भारी असमानता थी। ब्रिटिश सरकार ने जब भारत की सत्ता भारतीयों को हस्तान्तरित करने का निश्चय कर लिया
तब 4 अगस्त, 1947 को ब्रिटिश संसद ने भारतीय स्वतन्त्रता अधिनियम, 1947 पारित किया। इस अधिनियम द्वारा देशी राज्यों पर ब्रिटिश सर्वोच्चता पुनः देशी राज्यों को लौटा दी गई अर्थात् देशी रियासतें पूर्ण स्वतन्त्र हो जायेंगी और उनकी इच्छा पर निर्भर होगा कि वे चाहें तो पाकिस्तान में मिलें या हिन्दुस्तान में अथवा वे चाहें तो अपना स्वतन्त्र अस्तित्व भी बनाये रख सकती हैं।
इस प्रकार अंग्रेज भारत से जाते-जाते भारत की एकता को नष्ट कर गये। ब्रिटिश सत्ता के इस निर्णय से कुछ भारतीय नरेशों को हार्दिक प्रसन्नता हुई और वे यह स्वप्न देखने लगे कि आरम्भ में वे पूरी तरह स्वतन्त्र रहेंगे और फिर मनचाही शर्तों पर भारत या पाकिस्तान से या किसी अन्य राज्य से सम्बन्ध करने के लिए स्वतन्त्र होंगे। इतना ही नहीं यदि उनकी शर्तें नहीं मानी गईं तो वे अपना स्वतन्त्र अस्तित्व भी बनाये रख सकेंगे ।
सरदार पटेल और देशी राज्य
5 जुलाई, 1947 ई. को अन्तरिम सरकार के गृहमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल के निर्देशन में ‘राज्य मन्त्रालय’ की स्थापना की गई और उन्हें भारत की ओर से देशी नरेशों के साथ बातचीत करने का उत्तरदायित्व सौंपा गया। 15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतन्त्र हो गया। भारत के विभाजन के समय खैरपुर, बहावलपुर आदि रियासतें पाकिस्तान में सम्मिलित हो गई और शेष भारत में रह गईं। सरदार पटेल ने भारतीय नरेशों से अपील की कि भारत के सामूहिक हितों को ध्यान में रखते हुए वे देश की अखण्डता को बनाये रखने में मदद करें।
सर्वप्रथम, उन्होंने प्रतिरक्षा, विदेशी सम्बन्ध और संचार व्यवस्था जैसे तीन मुख्य विषयों के सम्बन्ध में ही राज्यों को भारतीय संघ में सम्मिलित होने का आग्रह किया । उन्होंने नरेशों को यह विश्वास भी दिलाया कि कांग्रेस राज्यों के आन्तरिक मामलों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेगी। सरदार पटेल को इस कार्य में लार्ड माउण्टबेटन तथा राज्य मन्त्रालय के सचिव वी.पी. मेनन और राजाओं की परिषद् (चेम्बर ऑफ प्रिन्सेज) के चान्सलर महाराजा पटियाला से पूरा-पूरा सहयोग मिला। परन्तु सरदार पटेल का कार्य सरल न था क्योंकि 1937 ई. में उपर्युक्त तीन विषयों के सम्बन्ध में भी इन देशी नरेशों ने भारतीय संघ में सम्मिलित होना पसन्द नहीं किया था और
नतीजा यह निकला कि 1935 के अधिनियम की संघीय व्यवस्था लागू ही नहीं हो पाई। 1947 ई. में तो परिस्थिति बदल चुकी थी। अब दो मुख्य बाधाएँ आ खड़ी हुईं। पहली बाधा जिन्ना द्वारा खड़ी की गई। वे देशी नरेशों को पथ-भ्रान्त कर रहे थे। पाकिस्तान में सम्मिलित होने के लिए वे भारतीय नरेशों की प्रत्येक शर्त को मानने के लिए तैयार थे। दूसरी कठिनाई भोपाल के नवाब जैसे कुछ राजाओं ने खड़ी कर दी। ये नरेश पाकिस्तान और भारत-दोनों के साथ कूटनीतिक सम्बन्ध कायम करने के पक्ष में थे ताकि उनकी स्वतन्त्र सत्ता बनी रह सके। परन्तु लार्ड माउण्टबेटन ने देशी नरेशों को भौगोलिक एवं ऐतिहासिक बन्धनों का स्मरण कराकर दूसरी कठिनाई को दूर कर दिया।
देशी राज्यों के भारतीय संघ में सम्मिलित होने के लिए प्रक्रिया तय कर दी गई । राज्यों को दो दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने का सुझाव दिया गया। एक का नाम था-‘ ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ और दूसरे का नाम था-‘स्टेंडस्टिल एग्रीमेंट’। पहले दस्तावेज पर हस्ताक्षर करके कोई भी नरेश भारतीय संघ में सम्मिलित हो सकता था परन्तु उसके लिए प्रतिरक्षा, विदेशी मामले और यातायात एवं संचार व्यवस्था का उत्तरदायित्व संघीय सरकार को सौंपना जरूरी था । दूसरे दस्तावेज के अनुसार अंग्रेजी साम्राज्य में केन्द्रीय सरकार की जो स्थिति थी, अब उसके स्थान पर संघीय व्यवस्था में केन्द्रीय सरकार की व्यावहारिक स्थिति को मान्यता प्रदान करना था ।
सरदार पटेल के प्रयत्नों से जूनागढ़ (सौराष्ट्र), हैदराबाद (दक्षिण भारत) और जम्मू-कश्मीर के अतिरिक्त सभी देशी रियासतें (लगभग 136) भारतीय संघ में मिलने और भारतीय संघ को कुछ विषय देने तथा संविधान को मानने के लिए तैयार हो गईं।
जूनागढ़ की समस्या
सितम्बर, 1947 ई. में जूनागढ़ ने पाकिस्तान में सम्मिलित होना स्वीकार कर लिया । यहाँ मुस्लिम नवाब था परन्तु इस राज्य की बहुसंख्यक जनता हिन्दू थी। यह राज्य भारतीय सीमाओं से घिरा हुआ था अर्थात् भौगोलिक दृष्टि से यह राज्य भारत का अभिन्न अंग था। इसलिए वहाँ की जनता ने नवाब की कार्यवाही का जबर्दस्त विरोध किया। भारत सरकार ने भी नवाब की कार्यवाही की घोर निन्दा की। ऐसी स्थिति में नवाब अपने राज्य को छोड़कर पाकिस्तान भाग गया और बाद में फरवरी, 1948 ई. में जनमत-संग्रह करके जूनागढ़ को भारत में सम्मिलित कर लिया गया ।
हैदराबाद की समस्या
हैदराबाद का शासक मुस्लिम था, परन्तु यहाँ की बहुसंख्यक जनता हिन्दू थी । हैदराबाद का राज्य भी चारों तरफ से भारतीय सीमाओं से घिरा हुआ था । यहाँ के मुस्लिम शासक (निजाम) को अधिक से अधिक सोना, जवाहरात एकत्र करने की सनक सवार रहती थी। वह अपने आपको पूरी तरह से स्वतन्त्र समझता था और अपने राज्य के स्वतन्त्र अस्तित्व को कायम रखना चाहता था। 15 अगस्त तक उसने भारत सरकार के राज्य मन्त्रालय को संघ में सम्मिलित होने अथवा न होने के विषय में भ्रम में डाले रखा। इसके बाद भी, किसी न किसी बहाने से बातचीत को लम्बी खींचता रहा।
लार्ड माउण्टबेटन के दबाव से अन्त में नवम्बर, 1947 ई. में उसने भारत के साथ स्टेंडस्टिल एग्रीमेंट पर दस्तखत कर दिये परन्तु संघ में सम्मिलित होने की बात टालता रहा। निजाम की शह पाकर मुस्लिम रजाकारों ने राज्य के बहुसंख्यक हिन्दुओं को डराना-धमकाना तथा लूटना-खसोटना शुरू कर दिया। दिन-प्रतिदिन स्थिति बिगड़ती गई और हिन्दुओं पर अत्याचार बढ़ते गये। मुस्लिम रजाकारों के नेता ने तो यहाँ तक धमकी दी कि वे सम्पूर्ण भारत को जीतकर दिल्ली के लाल किले पर अपना झण्डा फहरा देंगे। रजाकारों ने उधर से गुजरने वाली गाड़ियों में लूटपाट करना आरम्भ कर दिया।
हैदराबाद का इतिहास (महाराजाने निजाम कोकी स्थिति दिन-प्रतिदिन बिगड़ती गई। सरदार पटेल और वी.पी. मेनन समझा-बुझाकर रास्ते पर लाने का काफी प्रयत्न किया, लेकिन अब स्थिति निजाम के नियन्त्रण से बाहर होती जा रही थी। हैदराबाद राज्य में रजाकारों का गुण्डाराज कायम हो चुका था। ऐसी स्थिति में भारत सरकार ने उसके विरुद्ध ‘पुलिस कार्यवाही’ करने का निश्चय किया और सितम्बर, 1948 ई. में भारतीय सेना को हैदराबाद में प्रवेश करके शान्ति एवं व्यवस्था कायम करने का आदेश दिया गया। मेजर जनरल चौधरी के नेतृत्व में यह ‘पुलिस कार्यवाही’ की गई । पांच दिन की कार्यवाही में ही भारतीय सेना ने मुस्लिम रजाकारों के प्रतिरोध को कुचल डाला । 18 सितम्बर, 1948 को मेजर जनरल चौधरी ने हैदराबाद के सैनिक गवर्नर का पद सम्भाला और हैदराबाद को भारतीय संघ में सम्मिलित कर लिया गया ।
जम्मू-कश्मीर की समस्या
जम्मू-कश्मीर राज्य की समस्या सबसे गम्भीर सिद्ध हुई । इस राज्य का शासक तो हिन्दू था किन्तु उसकी बहुसंख्यक जनता मुस्लिम थी। उसकी सीमाए पाकिस्तान और भारत दोनों से मिली हुई थीं। इसलिए कश्मीर के डोगरा शासक ने भारत तथा पाकिस्तान-किसी के साथ मिलने के स्थान पर स्वतन्त्र रहने का निर्णय किया । परन्तु पाकिस्तान को उसका यह निर्णय पसन्द नहीं आया। वह मुस्लिम बहुसंख्यक कश्मीर को अपने साथ मिलाना चाहता था।
इस हेतु पाकिस्तान ने हिंसक उपाय का सहारा लिया। पाकिस्तानी सहायता से उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रान्त के कबाइलियों ने 22 अक्टूबर, 1947 को कश्मीर पर आक्रमण कर दिया तथा 4 दिन में ही वे कश्मीर की राजधानी श्रीनगर से 15 मील दूर बारामूला नामक स्थान तक पहुँच गये।
राज्य के अधिकांश मुस्लिम सैनिक भी कबाइलियों से मिलते गये । 24 अक्टूबर को राजा हरिसिंह ने भारत सरकार से सैनिक सहायता का अनुरोध किया और कश्मीर को भारत में सम्मिलित करने को तैयार हो गया। 26 अक्टूबर को कश्मीर के मुख्यमंत्री मेहरचन्द महाजन ने भारत के प्रधानमन्त्री पं. जवाहरलाल नेहरू से मुलाकात की, परन्तु पं. नेहरू उस समय तक कश्मीर को सहायता देने के लिए तैयार न हुए जब तक कि राज्य के मुख्य राजनीतिक दल नेशनल कान्फ्रेन्स के नेता शेख अब्दुल्ला ने पं. नेहरू को यह आश्वासन नहीं दिया कि राज्य में संवैधानिक शासन की शर्त पर वह और उनका दल कश्मीर को भारत में सम्मिलित किये जाने के पक्ष में हैं।
अन्त में, कश्मीर को भारत में सम्मिलित करने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया। यह भी निश्चित किया गया कि बाद में कश्मीर में इस विषय पर जनमत संग्रह किया जायेगा। इस समझौते के पश्चात् 27 अक्टूबर को हवाई मार्ग से भारतीय सेना श्रीनगर भेजी गई जिसने दुश्मन के जबरदस्त आक्रमण से श्रीनगर को बचा लिया।
कश्मीर को अपने हाथ से निकलते देखकर पाकिस्तान की सेना ने कबाइलियों के नाम पर युद्ध में हस्तक्षेप किया परन्तु भारतीय सेना के सामने उसकी एक न चली और कुछ ही दिनों में पाकिस्तानी सेना बराबर पीछे हटती गई। 1 जनवरी, 1948 को भारत ने सुरक्षा परिषद् में यह शिकायत की कि पाकिस्तान से सहायता प्राप्त करके कबाइलियों ने भारत के एक अंग कश्मीर पर आक्रमण कर दिया है जिससे अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो गया है। प्रत्युत्तर पाकिस्तान ने भारत पर बदनीयता का आरोप लगाया और भारत में कश्मीर के विलय को असंवैधानिक करार दिया। संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रयासों के फलस्वरूप 1 जनवरी, 1948 ई. को भारत और पाकिस्तान युद्ध विराम के लिए सहमत हो गये। इस प्रकार, कश्मीर को भारत सम्मिलित किया गया।
भारतीय राज्यों में प्रजातन्त्रीय व्यवस्था
भारतीय संघ में सम्मिलित हो जाने के पश्चात् सरदार पटेल इन राज्यों में प्रजातन्त्रीय प्रणाली की स्थापना को प्रोत्साहन देना चाहते थे। जब तक अंग्रेजों का शासन रहा. भारतीय नरेशों को अपने निरंकुश शासन के लिए केन्द्रीय सरकार से समर्थन मिलता रहा परन्तु स्वाधीन भारत की केन्द्रीय सरकार राजाओं की निरंकुशता का समर्थन करने को तैयार नहीं थी। सरदार पटेल ने भारतीय नरेशों को समझाया कि अंग्रेजी साम्राज्य को केवल जन-आन्दोलन के माध्यम से ही समाप्त किया गया था। इसलिए राजसत्ता का प्रयोग जनता द्वारा ही होना चाहिए।
सरकार ने उन्हें यह चेतावनी भी दी कि वह किसी भी राज्य अशान्ति एवं अव्यवस्था फैलने नहीं देगी। सरदार पटेल ने नरेशों को यह आश्वासन भी दिया कि उनकी व्यक्तिगत सम्पत्ति और अधिकारों को सुरक्षित रखने का प्रयास किया जायेगा। इस आश्वासन ने स्थिति को बदलने में सहयोग दिया और सभी नरेशों ने सरदार पटेल के सुझाव को स्वीकार करते हुए अपने-अपने राज्यों में प्रजातान्त्रिक व्यवस्था को लागू करने तथा सुधारों को कार्यान्वित करने का आश्वासन दिया। परिणामस्वरूप इन राज्यों में एक रक्तहीन क्रान्ति हो गई और देशी रियासतें राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ गई।
देशी रियासतों में प्रजातन्त्रीय व्यवस्था का आश्वासन तो मिल गया, परन्तु भारत सरकार के लिए एक अन्य समस्या आ खड़ी हुई। सरदार पटेल चाहते थे कि देशी रियासतों के लोगों को भी आर्थिक, शैक्षणिक एवं अन्य क्षेत्रों में समान अवसर एवं सुविधाएँ मिलें परन्तु इसमें सबसे बड़ी बाधा आर्थिक संसाधनों की थी। अधिकांश देशी रियासतें आर्थिक दृष्टि से इतनी कमजोर एवं सीमित थीं कि वे अपने ही बलबूते पर विकास की दिशा में कदम उठाने में असमर्थ थीं। जनकल्याण की दृष्टि से उनके स्वतन्त्र एवं पृथक् अस्तित्व का औचित्य ही नहीं था। अतः काफी विचार-विमर्श के बाद सरदार पटेल ने दो प्रकार की पद्धतियों को प्रोत्साहन दिया—एक बाह्य विलय और दूसरा आन्तरिक संगठन ।
बाह्य विलय में छोटे-छोटे राज्यों को मिलाकर अथवा पड़ौसी प्रान्तों में विलय करके एक बड़ा राज्य बनाया गया। आन्तरिक संगठन के अन्तर्गत इन राज्यों में प्रजातन्त्रीय शासन व्यवस्था लागू की गई जिससे आम आदमी भी दैनिक शासन से जुड़कर उसका सहयोगी एवं समर्थक बन गया। दूसरे शब्दों में, राज्यों में नरेशों के निरंकुश शासन के स्थान पर अब जनता का शासन स्थापित हो गया।