मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन में प्रमुख धर्म सुधारक, 19 वीं सदी में प्रमुख सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन

By India Govt News

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भूमिका मध्यकालीन भारत की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक देन भक्ति आन्दोलन रही है। समकालीन धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक परिस्थितियाँ इसके उदय के लिए उत्तरदायी रही थीं।

भक्ति आन्दोलन के सन्त व उनकी शिक्षाएँ

1. रामानुजाचार्य इन्हें मध्ययुगीन भक्ति आन्दोलन का जनक कहा जाता है। इन्होंने वेदान्त सारम, वेदान्त संग्रहम, वेदान्त दीपक, भगवतगीता की टीका, ब्रह्मसूत्र की टीका इत्यादि प्रन्थों की रचना की। इन्होंने विशिष्टाद्वैतवाद की स्थापना की। इन्होंने ईश्वर, जगत व जीव तीनों को सत्य माना तथा जीव व जगत को अनिवार्य रूप से ईश्वर पर आश्रित माना। इनका ईश्वर सगुण, सर्वगुण सम्पन्न, सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान है। वही सृष्टि का निर्माता है। इन्होंने मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रपत्ति के सरल मार्ग को बताया क्योंकि इसमें ज्ञान व विद्या की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर की प्राप्ति के लिए इन्होंने विश्वास व आत्मसमर्पण को आवश्यक बताया।

2. निम्बार्क-निम्बार्क ने कृष्ण भक्ति का प्रचार किया। उन्होंने द्वैताद्वैतवाद की स्थापना की। उनके अनुसार कृष्ण के प्रति प्रेमपूर्ण भक्ति और समर्पण की भावना से मोक्ष प्राप्ति सरल हो जाती है। उनका मत ‘सनक सम्प्रदाय’ भी कहलाता है। उनके कृष्ण सभी अच्छे गुणों से युक्त हैं तथा विकारों से रहित हैं। उनका अवतारवाद में विश्वास था। उन्होंने नैतिकता के नियमों के पालन पर बल दिया ।

3. मध्वाचार्य-मध्वाचार्य रामानुज की भाँति विष्णु के उपासक थे। वे अद्वैत के स्थान पर द्वैतवाद में विश्वास करते थे। उन्होंने द्वैतवाद की स्थापना की। उन्होंने जीव व जगत को सर्वथा भिन्न माना। उनके अनुसार अन्य सभी तत्त्व ईश्वर से भिन्न होते हुए भी उस पर आधारित हैं। केवल ईश्वर की ही स्वतंत्र सत्ता है। उनका ईश्वर सर्वगुणसम्पन्न तथा मानवशक्ति से परे है। उसकी प्राप्ति केवल भक्ति से ही हो सकती है। इसके लिए निष्काम कर्म, उचित गुरु का मार्गदर्शन तथा ईश्वरोपासना आवश्यक है।

4. रामानन्द – रामानन्द का जन्म 1299 ई. में प्रयाग के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। उन्होंने बैकुण्ठवासी विष्णु के स्थान पर मानव शरीरधारी तथा राक्षसों का संहार करने वाले भगवान राम की प्रतिष्ठा की। उन्होंने राम भक्ति व उपासना का भरपूर प्रचार-प्रसार किया। उन्होंने ब्रह्मसूत्र पर आनन्द भाष्य की रचना की तथा ब्रह्म के रूप में श्रीराम को मान्यता दी। उन्होंने ईश्वर के सगुण व निर्गुण दोनों रूपों का समर्थन किया। उन्होंने रामानन्द सम्प्रदाय की स्थापना की। उन्होंने वर्णाश्रम तथा सभी प्रकार के भेदभावों को नकार दिया। उन्होंने हिन्दी भाषा के माध्यम से राम-सीता की भक्ति का प्रचार किया ।

5. बल्लभाचार्य – बल्लभाचार्य ने कृष्ण भक्ति का प्रचार-प्रसार किया। उन्होंने पुष्टिमार्ग की स्थापना की। उन्होंने प्रेमलक्षणा भक्ति पर विशेष बल दिया। उन्होंने वात्सल्य रस से ओत-प्रोत भक्ति की शिक्षा दी। शंकराचार्य के मायावाद का विरोध करके उन्होंने यह प्रतिपादित किया कि जीव उतना ही सत्य है जितना कि ब्रह्म, फिर भी वह ब्रह्म का अंश व सेवक है। जीव भगवान की भक्ति के बिना शान्ति नहीं पा सकता है। भगवान श्रीकृष्ण ही परब्रह्म तथा उनकी है सेवा करना ही जीव का कर्त्तव्य है । अतः जीव को स्वयं को उन्हीं के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए। उनका मत शुद्धाद्वैतवाद कहलाता है। अणुभाष्य, सिद्धान्त रहस्य तथा भगवत टीका सुबोधिनी उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं। उनका मानना था कि आत्मा व जड़ जगत ब्रह्म के ही स्वरूप हैं। ब्रह्म बिना किसी की सहायता के जगत का निर्माण करता है। वह सगुण व सच्चिदानन्द है । अविद्या के कारण जगत ब्रह्म से अलग दिखाई पड़ता है। अविद्या से मुक्ति का साधन भक्ति है। यही भक्ति ईश्वर की प्रेमपूर्ण सेवा है।

6. चैतन्य महाप्रभु-चैतन्य का जन्म 1785-86 ई. में बंगाल के नदिया ग्राम में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। वे कृष्ण को ईश्वर का अवतार न मानकर स्वयं ईश्वर मानते थे । उनका मानना था कि भक्त के लिए कृष्ण के प्रेम में विह्वल होना आवश्यक है। वे स्वयं भी आत्मविभोर होकर कृष्ण की भक्ति में डूब जाते थे। उनका धर्म रस्मों व आडम्बरों से मुक्त था। उन्होंने परमात्मा के प्रति पूर्ण आस्था रखने का सन्देश दिया। उनकी उपासना का स्वरूप प्रेम, भक्ति, कीर्तन व नृत्य था।

प्रेमावेश में भक्त परमात्मा से साक्षात्कार करता है। उनका विश्वास था कि यदि कोई जीव कृष्ण के प्रति श्रद्धा रखता है, अपने गुरु की सेवा करता है, तो वह ब्रह्म जाल से मुक्त होकर कृष्ण के चरणों को प्राप्त करता है। उन्होंने ज्ञान के स्थान पर प्रेम व भक्ति पर बल दिया। राधा-कृष्ण के प्रेम का दुरुपयोग न हो, इसलिए उन्होंने स्त्रियों को पुरुषों से पृथक् रखने का सन्देश दिया। वे मूर्तिपूजा व धर्मग्रन्थों के विरोधी नहीं थे परन्तु कर्मकाण्डों से उन्हें घृणा थी।

7. नामदेव- 15वीं शती में नामदेव ने महाराष्ट्र में भक्ति मार्ग का व्यापक प्रचार किया। उन्होंने जनसाधारण को प्रेम व भक्ति का सन्देश दिया। उन्होंने परम्परागत रीति-रिवाज तथा जाति-पाँति के बन्धनों को दूर करने का प्रयास किया। अन्य सन्तों की भाँति नामदेव भी एकेश्वरवादी थे तथा मूर्तिपूजा व पुरोहितों के नियन्त्रण के विरोधी थे। उनकी मान्यता थी कि भक्ति के माध्यम से ही ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है।

8. रैदास-रैदास का जन्म काशी के चमार परिवार में हुआ था। वे रामानन्द के 12 शिष्यों में से एक थे तथा बचपन से ही साधु सेवी थे। वे जातिप्रथा, तीर्थयात्रा व उपवासों के ‘विरोधी थे। वे हिन्दू व मुसलमानों में भेद नहीं करते थे। वे निर्गुण भक्ति में विश्वास करते थे। उनमें ईश्वर के प्रति समर्पण की भावना थी। श्री हरि चरणों का अनन्य आश्रय ही उनकी साधना का प्राण था।

9. दादू-दादू का जन्म अहमदाबाद में हुआ परन्तु उनके जीवन का अधिकांश समय राजस्थान में बीता। कबीर व नानक की भाँति उन्होंने मूर्तिपूजा, अन्धविश्वास, जातिप्रथा, तीर्थयात्रा, छुआछूत व उपवासों का विरोध किया तथा जनता को सीधा व सच्चा जीवन व्यतीत करने का सन्देश दिया। भजनों के माध्यम से उन्होंने विभिन्न सम्प्रदायों के मध्य प्रेम व भाईचारा बढ़ाने पर बल दिया। उनका पंथ ‘दादू पंथ’ के नाम से विख्यात हुआ, जिसे उनके शिष्य गरीबदास व माधोदास ने आगे बढ़ाया।

10. कबीर-लोक मान्यता के अनुसार कबीर विधवा ब्राह्मणी से जन्मे थे, जिसने लोक-लाज के भय से उनका परित्याग कर दिया था। नीरू नामक जुलाहा दम्पत्ति ने उनका पालन-पोषण किया। वे रामानन्द स्वामी के शिष्य थे। उनके उपदेशों के दो लक्ष्य थे (i) धर्म के बाह्याडम्बरों से मुक्त होकर आध्यात्मिक जीवन बिताना, तथा (ii) हिन्दू व मुसलमानों के मध्य साम्प्रदायिक सद्भाव बढ़ाना। उन्होंने जाति-प्रथा, छुआछूत तथा आडम्बरों का विरोध किया।

वे हिन्दुओं की जाति-पाँति, ऊँच-नीच व मूर्तिपूजा के विरोधी थे तो मुसलमानों की नमाज, रोजे, रमजान में उपवास तथा मकबरों व कब्रों की पूजा के भी विरोधी थे। उन्होंने एकेश्वरवाद, प्रेममार्ग व भक्ति पर बल दिया। वे ईश्वर व मानवता के प्रति प्रेम को ही धर्म मानते थे। उनकी वाणी का संग्रह ‘बीजक’ कहलाता है। साखी, सबद तथा रमैनी उसके तीन भाग हैं। वे सत्य, अहिंसा, सदाचार इत्यादि सद्गुणों के उपासक थे। वे ईश्वर के निर्गुण स्वरूप के उपासक थे।

11. नानक-नानक भी कबीर की भाँति हिन्दू-मुस्लिम एकता में विश्वास करते थे। उनका जन्म 1469 ई. में पंजाब में तलवंडी में हुआ था। नानक के अनुसार ईश्वर एक है जिसकी केवल अनुभूति हो सकती है। वह निर्गुण, निरंकार, अचिन्त्य, शाश्वत, अन्तर्यामी व सर्वव्यापी है। उनका कहना था कि ईश्वर के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण कर, उसका नाम जपने से, नम्रतापूर्वक व्यवहार करने से तथा सभी प्रकार के छल-कपट का परित्याग करने से ही ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है।

वे कर्मवाद व पुनर्जन्म में विश्वास करते थे। इसलिए वे मुक्ति को मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य मानते थे । वे गुरु का महत्त्व स्वीकार करते थे। भक्ति के लिए वे नैतिकता, दया, नम्रता, दान इत्यादि गुणों को आवश्यक मानते थे।

12. सूरदास-सूरदास उच्चकोटि के सन्त थे। सूर सारावली, साहित्य लहरी तथा सूर सागर उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। वे सगुण सन्त थे। श्रीकृष्ण उनके आराध्य थे। उनके काव्य में भक्ति, शृंगार व वात्सल्य तीनों रसों का सुन्दर संगम हुआ है। पुष्टिमार्ग में दीक्षित होने से उनकी कृष्ण भक्ति में दास्य भावना की प्रधानता है। बल्लभाचार्य से दीक्षा लेने के बाद उनकी भक्ति सखाभाव की हो गई। वे प्रेम व भक्ति से ओत-प्रोत थे। उन्होंने अपनी रचनाएँ ब्रज भाषा में लिखीं।

13. तुलसीदास –तुलसीदास का जन्म 1532 ई. के आसपास उत्तरप्रदेश के सोरों में हुआ माना जाता है। वे महान सन्त ही नहीं अपितु समाज सुधारक भी थे। उन्होंने लोगों को धर्म के क्षेत्र में व्याप्त कुरीतियों से परिचित करवाकर प्रेम व भक्ति का मार्ग अपनाने का सन्देश दिया। तुलसी ने प्रचलित मतों में समन्वय करने का प्रयास किया। उन्होंने शूद्रों व ब्राह्मणों में भी समन्वय करने का प्रयास किया। उन्होंने अपनी रचनाओं में गुरु भक्ति, नारी के प्रति श्रद्धा, भ्रातृ स्नेह, शासक के कर्त्तव्य तथा सामाजिक व नैत्तिक मूल्यों पर विशेष बल दिया।

उन्होंने किसी नए सम्प्रदाय की स्थापना नहीं की अपितु प्रचलित धार्मिक मतों में समन्वय करने का प्रयास किया। उन्होंने निर्गुण व सगुण भक्ति धाराओं में भी समन्वय करने का प्रयास किया। उन्होंने पददलित हिन्दू जाति के समक्ष श्री राम का आदर्श उपस्थित किया तथा उन्हीं के आदर्श जीवन को अपनाने पर बल दिया। उन्होंने जाति-पाँति का विरोध किया।

14. मीराबाई – राजस्थान के सगुण सन्तों में मीरा का नाम सर्वोपरि है। बाल्यकाल में उन्हें कृष्ण भक्ति परिवार में मिली। मीरा रतनसिंह की इकलौती पुत्री थी। 16 वर्ष की आयु में मीरा का विवाह महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज से हुआ। विवाह के सात वर्ष बाद मीरा विधवा हो गई। इस घटना के बाद मीरा का मन संसार से उठ गया तथा वह कृष्ण भक्ति में डूब गई।

मीरा की भक्ति कान्ता भाव की है। उनकी भक्ति के तीन सोपान हैं— (i) प्रारम्भ में वे कृष्ण भक्ति के लिए लालायित रहती हैं। (ii) दूसरे सोपान में उन्हें कृष्ण भक्ति की उपलब्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। (iii) तीसरे सोपान में उन्हें आत्मबोध हो जाता है। मीरा के काव्य में सांसारिक बन्धनों को त्यागकर ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव मिलता है। कृष्ण को वे परमात्मा तथा अविनाशी मानती हैं। भावना तथा श्रद्धा उनकी भक्ति की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ हैं।

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