सिन्धु सभ्यता के काल के विषय में पर्याप्त मतभेद हैं। विभिन्न इतिहासकार उसका समय 2500 ई. पू. से 5000 ई.पू. तक निश्चित करते हैं। सर जॉन मार्शल इसे 5000 वर्ष ई.पू. की सभ्यता मानते हैं। हरिदत्त वेदालंकार इसका समय 3000 ई. पू. निर्धारित करते हैं। डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी और श्री अर्नेस्ट मैके इस सभ्य समय 3250 ई. पू. से 3750 ई. पू. ठहराते हैं। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से प्राप्त होने वाली मुहरें तथा अन्य चित्र यहाँ के लोगों के धार्मिक विश्वासों का भी परिचय देते हैं। खुदाई में अनेक ऐसी मूर्तियाँ मिली हैं जिनसे इनके धार्मिक विश्वास एवं जीवन का भली-भाँति पता चलता है। इनके धर्म और धार्मिक विश्वासों के विषय में निम्नलिखित बातें उल्लेखनीय हैं-
सिन्धु सभ्यता की धार्मिक स्थिति की विवेचना कीजिए
(1) बहुदेववाद – यहाँ के लोग अनेक देवी-देवताओं की आराधना करते थे। विद्वानों के अनुसार दो मुख्य शक्तियों की पूजा की जाती थी—परम पुरुष और परम नारी।
(2) मातृ-पूजा – सिन्धु सभ्यता के लोग मातृ-देवों की भी पूजा करते थे। कुछ ऐसी मूर्तियाँ मिली हैं जिनमें एक ऐसी नारी का चित्र है जो अर्द्ध-नग्न है। उसकी कमर के चारों ओर एक मेखला है और सिर पर एक विशेष वस्त्र है। इसे देखकर यह आभास होता है कि इसी को परम नारी के रूप में मानकर पूजा की जाती थी। मार्शल ने इसे महादेवी के रूप में माना है।
यह सत्य भी है क्योंकि भारत में माता की आराधना बहुत प्राचीनकाल से चली आ रही है। हड़प्पा से एक लम्बी मुहर प्राप्त हुई है जिसमें पृथ्वी या मातृदेवी का चित्र है, जिसकी योनि में एक अंकुर निकल रहा है और पास में छुरी लिए हुए एक पुरुष और एक हाथ ऊपर उठाये हुए एक स्त्री खड़ी है जो सम्भवतः देवी को बलि चढ़ाने के लिए लाई गई थी। उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि यहाँ के लोग सृष्टि का आरम्भ नारी-शक्ति द्वारा मानते थे ।
(3) मूर्ति-पूजा – यद्यपि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई में किसी भी मन्दिर का भग्नावशेष नहीं मिला है परन्तु यह अनुमान लगाया जाता है कि सिन्धु सभ्यता के लोग मूर्ति-पूजक थे। उत्खनन में अनेक लिंग-मूर्तियाँ और योनि-मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। विद्वानों के मतानुसार सिन्धु-घाटी के लोग सृष्टिकारिणी शक्ति के रूप में इनकी पूजा करते थे ।
(4) देवी-देवताओं का मानवीकरण – विश्व की अन्य जातियों की भाँति इन लोगों ने भी अपने देवी-देवताओं को मनुष्य के रूप में देखा। मुहरों और मूर्तियों में मनुष्य की आकृति चित्रित है। यह इस बात का प्रमाण है कि ये लोग मनुष्य के गुणों को देवी-देवताओं पर आरोपित कर उनकी पूजा करते थे। इस प्रकार इन लोगों ने देवताओं और मनुष्यों में घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित किया था।
(5) शिवोपासना- हड़प्पा की खुदाई में एक मुहर प्राप्त हुई है जिस पर बने हुए चित्र में शिव की मूर्ति का आभास होता है। यह एक सिंहासन पर विराजमान है और योग-मुद्रा में भी दिखाई गई है। इसके दायीं ओर एक हाथी और व्याघ्र तथा बायीं ओर एक बारहसिंगा और भैंसा है। सिंहासन के नीचे दो हिरन हैं। इस मूर्ति के सिर पर दो सींग प्रदर्शित किए गए हैं। सर जॉन मार्शल ने कुछ ऐसे तथ्य प्रस्तुत किए हैं जिनसे यह पता चलता है कि यह मूर्ति शिवजी की है। उनके अतिरिक्त कुछ विद्वान् इसे चतुर्भुजी देवता का प्रतिरूप मानते हैं ।
(6) पशु-पूजा – मुहरों पर पशुओं के चित्र मिले हैं। पत्थर और मिट्टी की मूर्तियों से यह तीन भागों में बांटा है— कल्पना की जा सकती है कि ये लोग पशुओं की भी पूजा करते थे । पूजित पशुओं को विद्वानों ने श्रृंगी पशु ।
(अ) पौराणिक पशु जिनके मानवीय और पाशविक दोनों ही रूप दिखाई देते हैं।
(ब) विलक्षण पशु, जो यद्यपि पौराणिक नहीं हैं परन्तु फिर भी असाधारण हैं, जैसे एक
(स) साधारण पशु —जैसे हाथी, बारहसिंगा, व्याघ्र, हरिण, भैंसा आदि
(7) जल-पूजा-नदियों को अति प्राचीनकाल से पवित्र माना गया है। सिन्धु प्रदेश के उत्खनन में जो जलकुण्ड मिला है उसी से यह अनुमान लगाया गया है कि सिन्धु प्रदेश के लोग जल-पूजा भी करते होंगे।
(8) पादप-पूजा-वृक्षों के चित्रों से यह पता चलता है कि ये लोग वृक्षों की भी पूजा करते थे। पीपल, नीम आदि वृक्षों को बहुत पवित्र माना जाता था। एक चित्र में एक देवता वृक्षों के मध्य में खड़ा है और उसके सन्निकट ही एक उपासक विनीत भाव से खड़ा है। शायद वह पीपल का ही वृक्ष है। पीपल के वृक्ष की पूजा हिन्दुओं में अब भी होती है ।
(9) सूर्य व अग्नि की पूजा-सिन्धु प्रदेश के लोग अग्नि की भी पूजा करते थे । कुछ ऐसी वस्तुएँ मिली हैं जिनसे यह पता चलता है कि इस युग में अग्निशालाएँ भी थीं। वहाँ अग्नि देवता को बलि भी दी जाती थी। कुछ मुहरों पर स्वास्तिक तथा चक्र बना हुआ है जिससे यह अनुमान लगाया जाता है कि यहाँ के लोग सूर्य के उपासक थे ।
(10) प्रजनन-शक्ति की आराधना-शिव की उपासना में योनि तथा लिंग-पूजा का विशेष महत्त्व माना गया है जिससे यह अनुमान लगाया गया है कि यहाँ के लोग योनि तथा लिंग की प्रतिमा बनाकर प्रकृति की प्रजनन-शक्ति की भी पूजा करते थे। कुछ ऐसे पत्थर प्राप्त हुए हैं जो योनि तथा शिव लिंग के प्रतीक हैं। इस प्रकार ये लोग प्रजनन-शक्ति के भी उपासक थे । यह बात भी हिन्दू धर्म से काफी मिलती-जुलती है।
(11) अनुष्ठान-कुछ विद्वानों ने सिन्धु घाटी के लोगों को धर्मानुष्ठानमूलक भी बताया है। उनका कथन है कि विशाल स्नानागार और उसके समीप के अन्य स्नानागारों से यह प्रकट होता है कि सिन्धु प्रदेश में समय-समय पर धार्मिक समारोह व विशाल पर्व आदि होते होंगे और लोग इन बड़े पर्वों पर स्नान करने के लिए यहाँ आते होंगे। कुछ विद्वानों के अनुसार वृत्ताकार पाषाण-खण्ड शायद देवी स्तम्भ या यज्ञ स्तम्भ थे जिनके समीप सिन्धु के निवासी किसी प्रकार की धार्मिक क्रियाओं को सम्पन्न करते थे । इस प्रकार धार्मिक रूढ़ियों और अनुष्ठानों का पर्याप्त विकास इस काल में हुआ था । रमेशचन्द्र मजूमदार के अनुसार, “सिन्धु घाटी सभ्यता के निवासियों के धर्म एवं आर्यों के बाद के हिन्दू धर्म में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध था ।”
(12) अन्ध-विश्वास-सिन्धु प्रदेश में कुछ मुहरें तथा ताबीज भी मिले हैं जिनसे यह अनुमान लगाया गया है कि इनके धर्म में अन्ध-विश्वास भी था। ये ताबीज वे लोग अनिष्ट-निवारण व कल्याण के लिए प्रयोग में लाते थे ।
उपसंहार– उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि सिन्धु सभ्यता में उच्चकोटि की धार्मिक मान्यताएँ थीं। इस मान्यता का सम्बन्ध चाहे कुछ भी रहा हो परन्तु इसमें किंचित मात्र भी सन्देह नहीं है कि इस काल में धर्म का अत्यन्त व्यवस्थित रूप विद्यमान था।
आधुनिक हिन्दू धर्म की सैधव धर्म से तुलना
वस्तुतः सिंधु घाटी के लोगों के धर्म तथा आधुनिक हिन्दू धर्म दोनों में अनेक विषयों पर समानता है। हिन्दुओं की भाँति सिंधुवासी भी बहुदेववादी होते हुए भी एक ईश्वरीय सत्ता से परिचित थे। सिन्धुवासियों ने परमपुरुष एवं परमनारी को सृजन शक्ति के प्रतीक रूप में माना तो हिन्दू लोग पार्वती-परमेश्वर को मानते हैं। सिन्धुवासियों का पशुपति शिव परवर्ती हिन्दू धर्म के शिव से मिलता है। पशुपति शिव की भाँति परवर्ती हिन्दुओं का शिव भी योगीश्वर है, त्रिशूलधारी है और पशुपति के रूप में विख्यात है। सैन्धवों का पशुपति हिन्दुओं के शिव के समान त्रिनेत्रधारी है। सिन्धुवासियों की मातृ-देवी हिन्दू धर्म की पृथ्वी एवं अदिति तथा आद्यशक्ति से मिलती-जुलती है। सिंधुवासी लिंग की पूजा करते थे, तो हिन्दू धर्म में आज भी लिंग-पूजा का महत्त्व बना हुआ है।
सिंधुवासी वृक्षों की पूजा करते थे। हिन्दू धर्म में भी तुलसी, पीपल, आँवला, बबूल, शीशम आदि वृक्षों को धार्मिक महत्त्व दिया जाता है और समय-समय पर इनकी पूजा भी होती है। सिंधुवासी बहुत से पशु-पक्षियों की पूजा करते थे । हिन्दू धर्म में अनेक पशु-पक्षियों को देवताओं का वाहन मानकर धार्मिक महत्त्व दिया गया है। जैसे—हाथी इन्द्र का, बाघ दुर्गा का, मेंढ़ा ब्रह्मा का, घड़ियाल गंगा का, भैंसा यम का, बैल शंकर का, उल्लू लक्ष्मी का वाहन समझा जाता है। सिंधुवासियों की भाँति हिन्दुओं में नाग-पूजा प्रचलित है।
सिन्धुवासियों में पवित्र स्नान और जलपूजा का धार्मिक महत्त्व था । आधुनिक हिन्दू धर्म में भी इसका महत्त्व कायम है। सिंधुवासी प्रतीक पूजा करते थे । हिन्दू धर्म में स्वस्ति का चिह्न आज भी पवित्र और शुभ माना जाता है। सिंधुवासी साकार उपासना में विश्वास रखते थे और उन्होंने अपने देवताओं की मूर्तियाँ बनाईं। हिन्दू धर्म में भी मूर्तियाँ प्रचलित हैं। जिस प्रकार सिंधुवासी अपनी मूर्तियों के आगे धूप-दीप जलाते थे, उसी प्रकार हिन्दू लोग भी मूर्तियों के आगे धूप-दीप जलाते हैं।
देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिये सिंधुवासी पशुबलि देते थे जो आज भी हिन्दू धर्म का अंग है। आज भी बहुत से देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिये बलि दी जाती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि हड़प्पाकालीन धर्म वैदिक अथवा परवर्ती हिन्दू धर्म से काफी मात्रा में साम्य रखता था ।