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राजपूत चित्रकला की विभिन्न शैलियों की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिए एवं मुगल तथा राजपूत शैली की तुलना कीजिए।

मध्यकाल में धार्मिक आंदोलन के प्रभाव से साहित्य एवं चित्रकला के क्षेत्र में एक क्रान्ति हुई । इस समय चित्रकला की परिष्कृत एवं परिमार्जित शैली के रूप में राजपूत शैली ...

By India Govt News

Published On: 15 September 2023 - 6:21 PM
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मध्यकाल में धार्मिक आंदोलन के प्रभाव से साहित्य एवं चित्रकला के क्षेत्र में एक क्रान्ति हुई । इस समय चित्रकला की परिष्कृत एवं परिमार्जित शैली के रूप में राजपूत शैली का अभ्युदय हुआ, जिसे राजस्थानी एवं हिन्दू शैली भी कहा जाता है। आरम्भ में इस शैली के चित्र राजाओं के दरबार में ही फलते-फूलते रहे परन्तु आगे चलकर इन्होंने सामान्य लोगों के जीवन में भी प्रवेश किया। तत्कालीन राजस्थान में अनेक राजे-रजवाड़े थे, अतः चित्रकला की शैली उन्हीं लोगों के नाम का पर्याय बनी ।

राजपूत चित्रकला

राजपूत चित्रकला की प्रमुख विशेषताएँ

राजपूत चित्रकला की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

1. यह एक विशुद्ध शैली है तथा इसके चित्रों के विषय भारतीय सभ्यता और संस्कृति सम्बन्धित हैं ।

2. प्राचीन ग्रन्थों तथा मध्यकालीन साहित्यिक पुस्तकों के चित्रों तथा लोक-कलाओं से राजस्थानी चित्रकला का विकास हुआ है।

3. कलाकारों ने अपने चित्रों में स्थानीय वातावरण, वहाँ के पशु-पक्षी, नदियाँ, झरने, पेड़-पौधे, बादल, पहाड़, तालाब, झीलों आदि का चित्रण किया है।

4. राधा-कृष्ण जैसे विषयों को विशेष पृष्ठभूमि में स्थान दिया गया है।

5. रंग चमकदार तथा हल्का गहरापन लिये हुए हैं। मुगलों के प्रभाव से चित्रों में सोने-चाँदी की रंगत भी दिखाई देती है

6. इन चित्रों की बारीकियाँ देखते ही बनती हैं। नायिकाओं के एक-एक बाल साफ दिखाई देते हैं ।

7. नायक-नायिकाओं के अंग-प्रत्यंग तथा नेत्रों के विविध स्वरूप राजपूत चित्रकला की विशिष्ट देन है।

8. अनेक उपमाओं के आधार पर मानव आकृतियों के अंगों-उपांगों का अंकन किया गया है, जैसे-मृग, मछली व खंजन सरीखे नेत्रों का प्रदर्शन ।

राजपूत चित्रकला की विभिन्न शैलियाँ

मेवाड़ शैली – राजस्थान की चित्रकला में मेवाड़ शैली का विशेष योगदान रहा है। तनाभारम्भ में यहाँ के चित्रों का विषय वैष्णव सम्प्रदाय से जुड़ा हुआ था। बाद में इसमें राजदरबार व भी होक-जीवन से भी प्रेरणा लेकर चित्र बनाये गये। इस चित्रकला पर जैन शैली का पूर्ण प्रभाव न्लीया जाता है। मेवाड़ शैली का प्रथम उदाहरण-‘श्रावक प्रतिक्रमण चूणी’ नामक सचित्र ग्रन्थ है

राजा तेजसिंह के समय 1260 ई. में चित्रित किया गया था। मेवाड़ के महाराणा कुम्भा एक में कलानुरागी शासक थे। उनके समय में मेवाड़ चित्रकला का प्रारम्भिक विकास हुआ। महाराणा ताप के समय में चावंड चित्रकला का प्रमुख केन्द्र रहा। मेवाड़ शैली का विकास मध्यकालीन जैन एवं पोथी-चित्रों से माना जाता है। इस शैली की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

1. मेवाड़ शैली के चित्रों में विशेष रूप से चटक रंगों जैसे लाल, केसरिया, नीले तथा पीले रंगों का प्रयोग किया गया है।

2. चित्रों में पुरुष आकृतियों की नाक लम्बी, चेहरा गोल व अण्डाकार तथा चिबुक व गर्दन के बीच का भाग अधिक भारी बनाया गया है। स्त्रियों की आकृतियों में गम्भीरता तथा नेत्रों को दो कों द्वारा मीनाकार ढंग से बनाया गया है। चित्रों में स्त्री कद में पुरुषों से छोटी बनाई गयी है।

3. मेवाड़ की चित्र शैली में पशु-पक्षियों के चित्रण में भावुकता दिखाई देती है।

4. मेवाड़ शैली में पुरुषों को घेरदार जामा तथा कमर में लम्बा व रंगीन पटका लगाये दिखाया गया है। पगड़ियाँ सुन्दर और जहाँगीर काल की पगड़ियों की तरह है। स्त्रियों की वेशभूषा में कपड़े की चोलियाँ व लहंगे चित्रित किये गये हैं तथा ऊपर से पारदर्शी आँचल व ओढ़नी दिखाई गयी है।

5. मेवाड़ शैली के चित्रों में कृष्ण के चित्रों को प्रधानता दी गई है। राग-माला के चित्रों में कृष्ण तथा राधा को आदर्श प्रेमी-प्रेमिका के रूप में चित्रित किया गया है।

6. मेवाड़ शैली के चित्रों में ग्राम्य जीवन, जुलूस, दरबार, संगीत, विवाह, उत्सव, नृत्य, बुद्ध, आखेट तथा अन्तःपुर आदि के दृश्यों को अच्छी तरह प्रदर्शित किया गया है।

बूंदी शैली-राजा रामसिंह, जो सन् 1821 में पैदा हुए, चित्रकला के विशेष प्रेमी थे। राव गोपीनाथ छत्रसाल, विशनसिंह आदि राजाओं ने चित्रकला को विशेष संरक्षण प्रदान किया। बूंदी शैली के चित्रों में शिकार, उत्सव, सवारी, दरबार आदि के दृश्य मिलते हैं जो उस समय की सामाजिक स्थिति का परिचय देते हैं। बूंदी शैली की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

1. बूंदी शैली की आकृतियाँ साधारणतया लम्बी, शरीर पतले और स्फूर्ति से बनी है।

2. नासिका साधारणतया छोटी, मुख गोलाकार और चिबुक पीछे की ओर झुकी हुई तथा छोटी है। है ।

3. वक्ष आगे निकला हुआ तथा कटि क्षीण, उदर खिंचा हुआ और पतला

4. बूंदी शैली के चित्रों में प्रायः विरहिणी राधा के विभिन्न रूपों को चित्रित किया गया है।

5. बूंदी शैली में पशु-पक्षियों का भी विविध रूपों में चित्रण किया गया है।

6. इस शैली के चित्रों में सफेद, गुलाबी, लाल, सुनहरी तथा हिंगुल रंगों का अधिक योग किया गया है।

कोटा शैली-इस शैली में आखेट संबंधी चित्रों का विशेष रूप से चित्रण हुआ है। महाराजा छत्रसाल और महाराजा रामसिंह के शासनकाल में चित्रकला का विकास तेजी से हुआ था। उस समय के कलाकारों में रघुनाथ, गोविंदराम, नूरमोहम्मद आदि प्रसिद्ध हैं। बारहमासा, राग-रागनियाँ, युद्ध प्रदर्शन, दरबारी दृश्य और जुलूस तथा श्रीकृष्ण की जीवन-लीला से सम्बन्धित चित्र कोटा शैली के कलाकारों के प्रिय विषय रहे हैं। कोटा शैली की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

1. कोटा शैली में पुरुष आकृतियाँ मुख्यतः वृषभ स्कंध, उन्नत भौंह, मोतियों की माला धारण किये तथा हथियारों से युक्त वेशभूषा में चित्रित की गई हैं।

2. नारी आकृतियों का कद यद्यपि छोटा और मोटा दिखाया गया है परन्तु चेहरा गोल आँखें कटाक्षयुक्त लम्बी तथा सुहानी चित्रित की गयी हैं ।

3. नारी आकृतियाँ पुरुष आकृतियों से अधिक सुन्दर दिखाई देती है।

4. इस शैली के चित्रों में हल्के पीले, हरे तथा नीले रंग का प्रयोग अधिक किया गया है।

5. इस कला शैली में उत्सवों व त्योहारों के समूह चित्र भी बनाये गये हैं।

किशनगढ़ शैली – जोधपुर घराने के राजा उदयसिंह के आठवें पुत्र किशनसिंह को किशनगढ़ राज्य उत्तराधिकार में मिला। महाराजा किशनसिंह ने ही किशनगढ़ राज्य की स्थापना की। राजसिंह के पश्चात् उनके पुत्र सावन्तसिंह, जो नागरीदास के नाम से प्रसिद्ध हुए, गद्दी पर बैठे। इन्हें ही किशनगढ़ शैली का जन्मदाता कहा जाता है। इनके महलों में एक दासी का प्रेम-प्रसंग आता है, जिसे नागरीदास की सौतेली माता 1727 ई. में 10 वर्ष की आयु में दिल्ली से लायी थी। नागरीदास का उसके प्रति आकर्षण बढ़ा, जो आगे चलकर प्रणय-सूत्र में परिवर्तित हो गया। यह दासी ‘बणी-ठणी’ के नाम से प्रख्यात हुई जिसे महाराजा सावन्तसिंह कृष्णमय हो जाने से राधा के रूप में देखते थे। चित्रकारों ने ‘बणी-ठणी’ को राधा के रूप में चित्रित किया है। किशनगढ़ शैली को इसी कारण ‘बणी-ठणी’ शैली की चित्रकला भी कहा जाता है । निहालचन्द, अमरचन्द व छोटू नामक चित्रकारों ने इस शैली के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। किशनगढ़ अर्थात् बणी-ठणी शैली चित्रकला की निम्न विशेषताएँ हैं-

1. इसमें पीले, लाल, नीले रंग बड़ी खूबी के साथ हल्कापन लिए हुए है। रंगों में सफेद रंग का भी प्रयोग किया गया है।

2. वस्त्रों को पारदर्शी बनाने से लहंगा, चोली, आँचल बहुत ही सुन्दर ढंग से दिखाई देते हैं।

3. नेत्रों की बनावट खंजन पक्षी के समान, भौहें तनी हुई तथा कजरारी आभा लिये हुए है।

4. केश विन्यास की दृष्टि से नायक-नायिकाओं के घुँघराले व कटि तक लम्बे बाल बनाये गये हैं।

5. वृक्षों के झुरमुट में विभिन्न प्रकार के पक्षी दिखाई पड़ते हैं। तोतों की उड़ान, चिड़ियाओं की तान इन चित्रों में ध्वनि रहित भी बोलती-सी आभासित होती है।

जयपुर शैली-इस शैली के चित्रकारों द्वारा बनाये गये चित्रों की गणना लघु चित्रों में की जाती है। लघुचित्रों में इस शैली के चित्र अनुपम हैं। इस शैली की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित है-

1. जयपुर शैली में पोर्ट्रेट बड़ी कुशलता से तैयार किये गये हैं।

2. रागमाला, बारहमासा, आखेट के चित्र, प्राकृतिक सौन्दर्य के चित्रण, बिहारी सतसई के श्रृंगारिक चित्र, रसिकप्रिया का मनलुभावन चित्रण तथा देवी-देवताओं के चित्र इस शैली की विशेषताएं हैं।

3. व्यक्ति चित्रण में यह शैली राजस्थानी चित्रकला में अद्वितीय है ।

4. रेखाओं की दृष्टि से ये चित्र जीवंत प्रतीत होते हैं। इनमें सुनहरी स्याही का प्रयोग डी बारीकी से किया गया है।

5. पुरुष व महिला पात्रों के कद आनुपातिक बनाये गये हैं तथा पुरुष पात्रों के नेत्र बड़े दिखाये गये हैं।

अलवर शैली-अलवर शैली का विकास 1775 ई. में माना जाता है, जब राजा प्रतापसिंह अलवर राज्य की स्थापना की। महाराजा विनयसिंह (1814-1857) अलवर के राजाओं में सबसे अधिक कलाप्रेमी थे। इन्हीं के समय में शेख सादी की ‘गुलिस्तां’ की प्रतिलिपि चित्रांकित हुई। विनयसिंह के पश्चात् महाराजा शिवदानसिंह के समय भी कला का पर्याप्त विकास हुआ। इस शैली की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

1. इस शैली के चित्रों पर ढूंढाड़ शैली का स्पष्ट प्रभाव पाया जाता है ।

2. इस शैली के विषयों में राधा-कृष्ण के चित्र, गणिकाओं के चित्र तथा अंग्रेजी शैली से प्रभावित लोकजीवन के चित्रों की प्रधानता है ।

3. शिकार सम्बन्धी चित्र दर्शनीय है ।

4. इस शैली के चित्रों में हरे और नीले रंग का अधिक प्रयोग हुआ है ।

5. इस शैली में आँखें मछली जैसी, होंठ पतले तथा पान द्वारा रचे हुए दिखाये गये हैं। चिबुक भरी हुई, भवें कमान की तरह तनी हुई और मुख प्रायः गोल बनाये गये हैं ।

जोधपुर शैली-राठौड़ वंश के शासकों द्वारा विकसित मारवाड़ शैली की उपशैलियों में जोधपुर शैली का विशेष स्थान है। जोधपुर शैली का विकास मालदेव के समय से लेकर महाराजा भीमसिंह के समय तक माना जाता है। शिवपुराण, ढोला-मारु, राग-रागिनी, पृथ्वीराज रासो, बारहमासा तथा पाबूजी, हड़बूजी, मूमलदे, निहालदे आदि के जीवन से सम्बन्धित घटनाएँ जोधपुर शैली के प्रमुख विषय रहे हैं। यहाँ की वेशभूषा के चित्रों में मुगल शैली का चित्रण दृष्टिगोचर होता है। नारी की आकृतियों को लम्बा तथा आभूषणों से सुसज्जित बनाया गया है। खंजर के समान नेत्र, उभरा ललाट, कपोलों पर झूलती केशराशि, आगे निकली नासिका नारी चित्रों की प्रमुख विशेषता है। चित्रों में पुरुषों को ऊँची पगड़ी बाँधे दिखाया गया है। इस शैली के चित्रों के विषय यहाँ प्रचलित लोककथाएँ जैसे ढोला-मारु, मूमलदे, निहालदे आदि हैं। इन चित्रों में पीले रंग का अधिक प्रयोग किया गया है। वृक्षों में आम के वृक्ष तथा पशु-पक्षियों में ऊँट एवं घोड़े का चित्रण किया गया है।

बीकानेर शैली-अनूपसिंह समय कला की जिस शैली का विकास हुआ उसे बीकानेरी शैली के नाम से जाना जाता है। जूनागढ़ स्थित बादल महल में इस चित्रकारी का विशेष रूप दिखाई देता है। राजा-महाराजाओं के पोर्ट्रेट्स, दरबार, आखेट के दृश्य, राग-रागिनियों के चित्र तथा मुगलकाल के चित्रों की प्रतिलिपियाँ इस शैली के चित्रों के प्रमुख विषय हैं। इन चित्रों में पुरुष ऊँची शिखर आकार की पगड़ियाँ बांधे, फैले हुए जामे पहने तथा लम्बे और तीखे खड़ग हाथ में लिये दिखाये गये हैं। नारी चित्रों की आकृतियों में इनके होंठ, के नाक, आँखें तथा सम्पूर्ण कद पर मुगल शैली का प्रभाव है।

1. राजपूत शैली के चित्रों के विषय मुख्य रूप से शुद्ध भारतीय परम्परा पर आधारित हैं जबकि मुगल शैली पर ईरानी प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।

2. राजपूत शैली में नारी चित्रण को प्रमुख स्थान दिया गया है जबकि मुगल शैली में शासकों को महत्त्व दिया गया है।

3. राजपूत शैली कल्पना-प्रधान है जबकि मुगल शैली वास्तविक और यथार्थता प्रधान है। राजपूत शैली में शुद्ध वानस्पतिक और चमकीले रंगों का प्रयोग हुआ है जबकि मुगल शैली

में चीनी, फारसी, इरानी प्रभाव से सोने व चाँदी की रंगत दिखाई देती है।

4. राजपूत शैली में राधा-कृष्ण, राग-रागनियों तथा ऋतु आधारित चित्रों की अधिकता है। जबकि मुगल शैली में शासक, राजदरबार और शिकार के दृश्य अधिक मिलते हैं।

5. राजपूत शैली में हाथियों का चित्रण सादगी से किया गया है जबकि मुगल शैली में सजे हुए हाथियों का चित्रांकन किया गया है।

इस प्रकार दोनों शैलियों में समानता होते हुए भी विषय, रंग और तकनीक की दृष्टि से भिन्नता पाई जाती है 1

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