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भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के उत्थान के लिए उत्तरदायी विभिन्न तत्वों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए

भारत में राष्ट्रवाद का जन्म 1857 ई. के प्रथम स्वतन्त्रता आन्दोलन से माना जा सकता है। । इस प्रथम स्वतन्त्रता आन्दोलन में राष्ट्रवाद के तत्त्व हालांकि बहुत धूमिल थे किन्तु ...

By India Govt News

Published On: 15 September 2023 - 8:48 PM
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भारत में राष्ट्रवाद का जन्म 1857 ई. के प्रथम स्वतन्त्रता आन्दोलन से माना जा सकता है। । इस प्रथम स्वतन्त्रता आन्दोलन में राष्ट्रवाद के तत्त्व हालांकि बहुत धूमिल थे किन्तु इसने ही भारत में आधुनिक राष्ट्रवाद का सूत्रपात किया। राष्ट्रवाद की इस उभरती हुई भावना से ही ब्रिटेश साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारतीयों में असन्तोष उत्पन्न हुआ और भारतीय राष्ट्रीय ” आन्दोलन प्रारम्भ हुआ।

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रकृति एवं उद्देश्य

18वीं शताब्दी में जब भारत में आधुनिक राष्ट्रवाद का जन्म हुआ, भारत अंग्रेजों का गुलाम था। ब्रिटिश शासन-व्यवस्था से भारतीय समाज का प्रत्येक वर्ग असन्तुष्ट था। यह असन्तोष राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक आदि सभी क्षेत्रों में उभर कर सामने आया। इस असन्तोष ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी भावनाओं को जागृत किया और लोगों में यह भावना भरी कि वे भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्त कराने के लिए आन्दोलन करें। इस प्रकार भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए आवाज उठाई जाने लगी और भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का उद्देश्य था—देश को ब्रिटिश गुलामी से मुक्त करवाकर स्वतन्त्रता प्राप्त करना ।

इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हरसम्भव प्रयत्न किये गये। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रारम्भ में उदारवादी संवैधानिक साधनों का प्रयोग किया। इसके असफल सिद्ध होने पर उग्रवादी साधन भी अपनाये गये । क्रान्तिकारियों एवं आतंकवादियों ने इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु हिंसक साधन अपनाने और हत्या, बम-विस्फोट, सरकारी खजाने की लूट आदि कार्यवाहियाँ कीं । सेना के एक छोटे से हिस्से ने भी विद्रोह कर राष्ट्रीय आन्दोलन में सहयोग दिया। आजाद हिन्द फौज जैसे प्रयास भी हुए, जिन्होंने सैन्य शक्ति से भारत को स्वतन्त्रता दिलाने के लिए प्रयास किये ।

इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन किसी एक संस्था या व्यक्ति के प्रयासों का परिणाम नहीं था। विभिन्न संगठनों एवं व्यक्तियों ने अपने-अपने तरीके से स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए प्रयास किये थे ।

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन एवं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बीच अटूट सम्बन्ध-भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बीच अटूट और गहरा सम्बन्ध है। राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्यधारा का जन्म भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ ही हुआ और उसके साथ ही इसका विकास हुआ । भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने स्वतन्त्रता आन्दोलन में महत्वपूर्ण योगदान दिया जिसे नकारा नहीं जा सकता किन्तु साम्प्रदायिक, राजनीतिक, क्रान्तिकारियों व आतंकवादियों एवं सैनिक क्रान्ति के प्रयास आदि का सम्बन्ध हालांकि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से बिल्कुल नहीं है, किन्तु भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में ये भी महत्त्वपूर्ण हैं ।

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के उदय के प्रमुख कारण

भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन के उदय के लिए उत्तरदायी कोई एक कारण नहीं था। 19वीं शताब्दी के धार्मिक, सामाजिक सुधार आन्दोलनों एवं प्रथम स्वतन्त्रता आन्दोलन ने इसके लिए आधारभूमि तैयार की और अंग्रेजी शासन के दमन, आर्थिक शोषण, जातिगत भेद-भाव व कुशासन ने इसको विकसित किया। मुख्य रूप से इसके कारण ब्रिटिश शासन की वे दमनकारी नौतियाँ ही थीं जिन्होंने राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक व सामाजिक हर स्तर पर भारतीयों में असन्तोष की भावना को बढ़ाया। राष्ट्रीय आन्दोलन के उदय के प्रमुख कारणों का विवेचन निम्न प्रकार किया जा सकता है-

1. अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध असंतोष-राष्ट्रीयता की भावना के विकास का सबसे प्रधान कारण अंग्रेजी साम्राज्यवादी नीतियों के प्रति बढ़ता रोष एवं असंतोष था । अंग्रेजी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक नीतियों ने भारतीयों को यह समझने पर मजबूर कर दिया कि उनके हितों की रक्षा अंग्रेजी शासन में नहीं हो सकती। अंग्रेजी सरकार अपने ही स्वार्थों से प्रेरित होकर भारत का शोषण कर रही थी। इस शोषण से किसान, शिल्पी, मजदूर वर्ग, शिक्षित मध्यमवर्ग सभी प्रभावित थे । अंग्रेजी शासन से सिर्फ रजवाड़े, जागीरदार, ताल्लुकेदार, महाजन एवं जमींदार ही संतुष्ट एवं लाभान्वित थे। यह वर्ग भी अंग्रेजों के साथ ही मिलकर भारतीयों का शोषण कर रहा था ।

बुद्धिजीवीवर्ग बढ़ती बेरोजगारी से, व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और राजनीतिक अधिकारों के नहीं होने से क्षुब्ध था। इसी प्रकार पूँजीपतिवर्ग भी अंग्रेजी आर्थिक नीतियों से प्रभावित होकर असंतुष्ट था। वस्तुतः समस्त भारतीय समाज, कुछ स्वार्थी लोगों को छोड़कर, ब्रिटिश साम्राज्यवादी नीति को भारत के लिए एक अभिशाप मानता था और इसमें परिवर्तन या समाप्ति की आकांक्षा रखता था। लोगों ने यह अच्छी तरह समझ लिया कि जब तक अंग्रेज रहेंगे उनका कल्याण नहीं होगा। वे यह भी समझते थे कि ब्रिटिश आधिपत्य की समाप्ति के लिए शक्ति से अधिक जनसमर्थन की आवश्यकता है । अतः राष्ट्रीय चेतना एवं राष्ट्रीयता की भावना लोगों के दिलों में घर बनाने लगी ।

2. भारत का राजनीतिक एकीकरण-अंग्रेजी आधिपत्य से भारत को एक लाभ भी हुआ। इसने समूचे देश को राजनीतिक और आर्थिक रूप से एक सूत्र में बाँध दिया। यद्यपि यह कार्य अंग्रेजों ने अपने स्वार्थों की रक्षा के लिए ही किया, तथापि अंततः यह अंग्रेजों के लिए अभिशाप एवं भारतीयों के लिए एक वरदान सिद्ध हुआ। अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भारत में राजनीतिक एकता का सर्वथा अभाव था, परन्तु अंग्रेजों ने समूचे भारत पर अपना शासन स्थापित कर इसे एक राजनीतिक एवं प्रशासनिक सूत्र में बाँध दिया।

समस्त देश में एक जैसी प्रशासनिक व्यवस्था कायम की गई और वायसराय समूचे भारत का प्रशासनिक अध्यक्ष बन गया । इससे अब सभी यह समझने लगे कि वे एक शासन के अन्तर्गत हैं। एकीकरण की प्रक्रिया में रेल, डाक-तार की व्यवस्था ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाही। इसने देश के विभिन्न भागों में रहने वाले लोगों के मिलने-जुलने एवं विचारों के आदान-प्रदान का मार्ग सुगम बना दिया।

3. भारतीय राष्ट्रीयता की आर्थिक पृष्ठभूमि – राष्ट्रीयता की वृद्धि में आर्थिक कारणों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान था। 1857 ई. के पश्चात् भारत में राजनीतिक एकता के साथ-साथ आर्थिक एकता भी स्थापित हुई। अब सरकारी आर्थिक नीतियों का प्रभाव समस्त देश पर समान रूप से पड़ने लगा। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारतीय अर्थव्यवस्था में विरोधाभास स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। एक तरफ गतिहीन अर्थव्यवस्था में, जैसे व्यापार, संचार और परिवहन के साधनों में तेजी से विकास हो रहा था तो दूसरी तरफ कृषि की अवनति हो रही थी। साथ ही, जमीन पर दबाव भी बढ़ता जा रहा था।

देहातों में लोगों की स्थिति बिगड़ने लगी। व्यापार की वृद्धि ने पूँजीवादी उत्पादन को बढ़ावा दिया। विदेशी व्यापार की वृद्धि ने भारतीय अर्थव्यवस्था के औपनिवेशिक स्वरूप को और अधिक उभार दिया। इस व्यवस्था के अन्तर्गत भारतीय जनता और भारतीय साधनों का सर्वाधिक शोषण आरम्भ हुआ। अंग्रेजी आर्थिक नीतियों से समाज का उच्च वर्ग ही लाभान्वित हुआ, यहाँ तक कि भारतीय पूँजीवादी वर्ग भी इस व्यवस्था से संतुष्ट नहीं हो सका। भारतीय पूँजीपति वर्ग देश के आर्थिक साधनों का समुचित विकास करना चाहता था, परन्तु शासक वर्ग की नीतियों के कारण ऐसा सम्भव नहीं था। व्यापार की वृद्धि और औद्योगीकरण के फलस्वरूप जो समृद्धि आई, उसका लाभ सामान्य जनता, किसान, कारीगर और मजदूर को भी नहीं मिला।

इसके विपरीत देशी उद्योगों के विनाश, धन के निष्कासन, मूल्यवृद्धि, अकाल, महामारी का घातक प्रभाव इसी वर्ग को झेलना पड़ा। देहातों में कर्जदारों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई । मजदूरी में वृद्धि की अपेक्षा अनाज का मूल्य ज्यादा बढ़ गया। जनता पर करों का बोझ बढ़ा, परन्तु राष्ट्रीय आय में वृद्धि नहीं हो सकी। देहातों की गरीबी और आर्थिक दुर्व्यवस्था का प्रभाव व्यापारी, बैंकर और विभिन्न व्यवसायों में लगे लोगों पर भी पड़ा। फलतः देहातों का असंतोष राजनीतिक रूप से जागरूक शहरी लोगों विशेषकर शिक्षित मध्यम वर्ग के माध्यम से उभरकर सामने आने लगा।

आर्थिक असंतोष ने राजनीतिक उत्तेजना को जन्म दिया। समस्त भारतीय वर्ग, कुछ अपवादों के साथ, इससे प्रभावित हुआ । सारे देश में लोगों ने देखा कि वे एक समान शत्रु- ब्रिटिश शासन द्वारा उत्पीड़ित हैं । इस प्रकार, प्रो. बिपिनचंद्र के अनुसार, “साम्राज्यवादविरोधी भावना स्वयं देश के एकीकरण तथा समान राष्ट्रीय दृष्टिकोण के उदय में एक कारक बनी ।”

4. अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार-यद्यपि अंग्रेजों ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार अपने स्वार्थों के वशीभूत होकर ही किया था, तथापि 19वीं शताब्दी में पाश्चात्य विचारधारा और अंग्रेजी शिक्षा के विकास ने भारतीयों की मानसिक जड़ता समाप्त कर उन्हें आधुनिक, तर्कसंगत, विवेकपूर्ण राजनीतिक दृष्टिकोण अपनाने का अवसर प्रदान किया। भारतीय भी अब स्वतंत्रता, समानता, प्रतिनिधित्व जैसे सिद्धान्तों का महत्त्व समझने लगे। पाश्चात्य राजनीतिक घटनाओं, जैसे अमेरिकी स्वातंत्र्य-संग्राम, फ्रांस की महान क्रान्ति, इटली, स्पेन, यूनान की क्रान्तियों एवं इनके राजनीतिक महत्त्व को समझने में अंग्रेजी शिक्षा ने पर्याप्त सहायता की।

इसी प्रकार मिल्टन, शैली, बाईरन, वाल्तेयर, रूसो, मिल, मेजिनी, गैरीबाल्डी आदि विद्वानों के दर्शनों एवं क्रान्तिकारी कार्यों से भारतीय शिक्षित वर्ग अत्यधिक प्रभावित हुआ । समान शिक्षा-प्रणाली ने देश के एकीकरण में भी सहायता की। फलतः भारतीय विदेशी दासता को अपमान समझने लगे और व्यक्तिगत एवं राजनीतिक अधिकारों की प्राप्ति और सुरक्षा के लिए संगठित होने लगे। ब्रिटिश इतिहासकार रैम्जे मैक्डोनाल्ड ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है कि “पश्चिमी दार्शनिकों से व्यक्तिगत अधिकार और स्वतंत्रता के सिद्धान्त सीखकर भारतीय नेताओं ने उन अधिकारों की माँग अंग्रेज सरकार के समक्ष प्रस्तुत की ।”

5. साहित्य एवं समाचार-पत्रों का योगदान- राजनीतिक चेतना का संचार करने में प्रेस और साहित्य का भी कम महत्त्व नहीं रहा है। प्रो. बिपिनचंद्र के अनुसार, प्रेस ही वह मुख्य माध्यम था जिसके जरिए राष्ट्रवादी विचारधारा वाले भारतीयों ने देशभक्ति के संदेश और आधुनिक आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक विचारों को प्रसारित किया और अखिल भारतीय चेतना का सृजन किया। 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भारत में समाचार-पत्रों की संख्या नगण्य थी। इनका उचित महत्त्व भी नहीं समझा जाता था, परन्तु 1857 ई. के पश्चात् इनका तेजी से विकास हुआ।

फलस्वरूप अनेक अंग्रेजी एवं क्षेत्रीय भाषाओं में समाचार-पत्र प्रकाशित होने लगे। इनमें ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’, ‘स्टेट्समैन’, ‘इंगलिशमैन’, ‘फ्रैंड ऑफ इंडिया’, ‘मद्रास मेल’, ‘सिविल एंड मिलीटरी गजट’ आदि प्रमुख अंग्रेजी पत्र थे। इन पत्रों का रुख भारत-विरोधी एवं सरकार समर्थक होता था। लेकिन, इसी समय अन्य समाचारपत्र भी प्रकाशित हुए जिनमें अंग्रेजी सरकार की नीतियों की आलोचना की गई, भारतीय दृष्टिकोण को ज्वलंत प्रश्नों पर रखा गया और भारतीयों में राष्ट्रीयता, एकता की भावना जगाने का प्रयास किया गया।

ऐसे समाचार-पत्रों में मुख्य रूप से उल्लेखनीय हिंदू पैट्रियट, अमृत बाजार पत्रिका, इंडियन मिरर, बंगाली (बंगाल से प्रकाशित होने वाले); बम्बई से रास्त गोफ्तार, नेटिव ओपीनियन, मराठा, केसरी, मद्रास से हिन्दू, उत्तरप्रदेश से हिन्दुस्तानी, आजाद और पंजाब से ट्रिब्यून थे। इन समाचारपत्रों ने राष्ट्रीय चेतना को विकसित किया। इसी प्रकार बँगला, असमिया, मराठी, तमिल, हिन्दी, उर्दू आदि में उपन्यास, निबन्ध, कविताएँ आदि लिखकर देशभक्ति की भावना जागृत की गई। बंकिमचन्द्र चटर्जी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, भारतेंदु हरिश्चंद्र, विष्णुशास्त्री चिपलंकर, सुब्रह्मण्यम भारती, अल्ताफ हुसैन हाली इत्यादि ने साहित्यिक रचनाओं से राष्ट्रप्रेम की ज्योति प्रज्वलित की ।

6. सामाजिक धार्मिक सुधार आन्दोलनों का प्रभाव-19वीं शताब्दी के सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आन्दोलनों ने भी राष्ट्रीयता की भावना विकसित की। बंगाल, महाराष्ट्र और उत्तरी भारत में इन आन्दोलनों का व्यापक प्रभाव पड़ा। ब्रह्म समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज, रामकृष्ण मिशन, थियोसोफिकल सोसाइटी इत्यादि ने स्वदेश-प्रेम की भावना जागृत की। इन सुधारकों ने अंग्रेजीकरण और ईसाइयत के बढ़ते प्रभाव को कम करने एवं हिन्दू धर्म, वेद आदि की महत्ता को पुनः स्थापित करने, भारतीयों में आत्मसम्मान, गौरव एवं राष्ट्रीयता की भावना को विकसित करने में मदद की।

कुछ आलोचकों का विचार है कि सुधार आन्दोलन प्रतिक्रियावादी था और इसने साम्प्रदायिकता का विकास किया परन्तु इसके साथ-साथ हमें यह भी याद रखना चाहिए कि जो देश सदियों से गुलामी की जंजीरों में जकड़कर अपना अस्तित्व और महत्त्व खो बैठा था, उसकी भावना को उभारने और आत्मविश्वास को जगाने के लिए यह कदम आवश्यक था। डॉ. एम. एस. जैन के अनुसार, “विश्व के उन देशों में राष्ट्रीयता की भावना, जिन्हें विदेशी सत्ता के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ा है, अतीत में गौरव ढूँढ़कर ही जागृत हुई है; इसलिए भारत में भी इस गौरवपूर्ण समय की तलाश हुई।” परिणामस्वरूप सुधार आन्दोलनों ने राष्ट्रीयता की भावना जनमानस में कूट-कूट कर भर दी ।

7. प्राचीन संस्कृति का ज्ञान-सुधार आन्दोलनों के अतिरिक्त भारत की विस्तृत सभ्यता की जानकारी, इसके इतिहास एवं संस्कृति की खोज ने भी भारतीयों में देशप्रेम की भावना विकसित की। कलकत्ता में स्थापित एशियाटिक सोसाइटी ने प्राचीन साहित्य एवं संस्कृति को विश्व के समक्ष रखा। अनेक प्राचीन ग्रंथों का अंग्रेजी एवं अन्य भाषाओं में अनुवाद हुआ। प्राचीन लिपियों को पढ़ा गया, ऐतिहासिक स्मारकों एवं स्थलों की खोज की गई। मैक्समूलर, मोनियर विलियम्स, कोलब्रुक, हरप्रसाद शास्त्री, राजेन्द्रलाल मित्र, रानाडे, भण्डारकर इत्यादि के प्रयासों से भारतीयों में अपने अतीत के प्रति जिज्ञासा बढ़ी। इसका ज्ञान प्राप्त होने से उनमें गौरव एवं देशप्रेम का भाव जागा ।

8. विदेशों से सम्पर्क-अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार के चलते अनेक भारतीय विदेशों में भी गए। वहाँ उन लोगों ने नया राजनीतिक चिन्तन एवं क्रान्तिकारी विचार देखा। वे पश्चिम में होने वाले स्वतन्त्रता, समानता, राष्ट्रीयता के आन्दोलनों के सम्पर्क में आए। भारत आकर उन लोगों ने नए विचारों का प्रसार भारतीयों में भी किया और राष्ट्रीयता की भावना विकसित की।

9. प्रजातीय विभेद की नीति-अंग्रेजों की प्रजातीय विभेद की नीति ने जलती अग्नि में घी का काम कर इसे प्रज्ज्वलित कर दिया। अंग्रेज अपने-आपको सबसे श्रेष्ठ समझते थे। वे भारतीयों को अपमान और घृणा की दृष्टि से देखते थे। उन्हें ‘काला’ या ‘देशी’ (native) कहकर ही पुकारा जाता था । भारतीयों पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगाए गए थे—वे रेल के प्रथम श्रेणी में या उस डिब्बे में जिसमें अंग्रेज हों, सफर नहीं कर सकते थे, यूरोपियन क्लबों में नहीं जा सकते थे। अंग्रेजों के मुकदमों की सुनवाई भारतीय न्यायाधीश नहीं कर सकते थे। समान अपराध के लिए भी अंग्रेजों को कम सजा मिलती थी। इस विभेद की नीति से भारतीय प्रभावित हुए। फलतः, उनमें एकता, राष्ट्रीयता और अंग्रेजों के विरुद्ध घृणा की भावना फैल गई ।

10. राजनीतिक संस्थाओं का योगदान-सामाजिक-धार्मिक संस्थाओं की ही तरह 19वीं शताब्दी में कुछ राजनीतिक संगठन भी बने जिन्होंने अपने अधिकारों की सुरक्षा के लिए संगठित होकर प्रयास किया। ऐसी संस्थाओं में ‘लैंडहोल्डर्स सोसाइटी’, ‘ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन’, ‘मद्रास नेटिव एसोसिएशन’, ‘बम्बई एसोसिएशन’ इत्यादि प्रमुख हैं। इन संस्थाओं ने प्रतिवेदनों, स्मरणपत्रों द्वारा सरकार पर राजनीतिक अधिकारों और सुविधाओं के लिए दबाव डाला। इससे भारतीयों में यह आशा जगी कि संगठित होकर सरकारी अत्याचारों का मुकाबला किया जा सकता है। यह संगठन क्षमता राष्ट्रीयता की भावना विकसित करके ही प्राप्त की जा सकती थी। अतः इस दिशा में प्रयास किए गए।

11. लिटन और रिपन की प्रतिगामी नीतियाँ – भारतीय राष्ट्रीयता के उत्थान और विकास में लिटन और रिपन की प्रतिक्रियावादी नीतियाँ भी कम उत्तरदायी नहीं हैं। लिटन ने अपने कार्यों से भारतीयों को अपमानित और क्रुद्ध कर दिया। उसने ब्रिटेन से भारत आने वाले कपड़े पर आयात शुल्क हटा दिया। अफगान युद्ध (द्वितीय) का खर्च भारतीय राजस्व से पूरा किया गया। देशी लोगों के हथियार रखने पर ‘आर्म्स ऐक्ट’ द्वारा पाबन्दी लगा दी गई। प्रेस की स्वतन्त्रता का अपहरण हुआ। सबसे दुःखद बात यह थी कि जिस समय समस्त भारत भुखमरी और अकाल से कराह रहा था, उस समय उसने ‘दिल्ली दरबार’ का आयोजन किया जिसमें पानी की तरह धन बहाया गया। उसने सिविल सर्विस में प्रवेश की उम्र घटाकर भारतीयों के लिए इसमें प्रवेश और अधिक कठिन कर दिया।

लिटन के इन कार्यों की व्यापक प्रतिक्रिया हुई । उस अवस्था का वर्णन करते हुए सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा, “लॉर्ड लिटन के प्रतिक्रियावादी प्रशासन ने जनता को उसके उदासीनता के दृष्टिकोण से जगाया है और जनजीवन को आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है।” इसी प्रकार लॉर्ड रिपन के काल में इल्बर्ट बिल पर विवाद एवं ‘श्वेत विद्रोह’ ने भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना को उभारने एवं अपने अधिकारों के लिए एकजुट होकर आन्दोलन चलाने की प्रेरणा दी। इसी के बाद भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना हुई जिसके नेतृत्व में भारत ने स्वतन्त्रता प्राप्त की ।

इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि ‘भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन सामाजिक अंतर्विरोधों से, साम्राज्यवाद की हालत और शोषण की उसकी व्यवस्था से और उस शोषण की हालत के अन्तर्गत भारतीय समाज के अन्दर उत्पन्न सामाजिक और आर्थिक शक्तियों से पैदा हुआ।’

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