संस्कार से अभिप्राय – संस्कार शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, जैसे—पूर्ण करना, परिमार्जन करना, प्रजनन का गुण, स्मृति और पवित्र करने वाले अनुष्ठान आदि। परन्तु भारतीय हिन्दू समाज में संस्कार से अभिप्राय उस क्रिया से लगाया जाता है जिससे व्यक्ति शुद्ध और पवित्र होकर उन्नति पथ पर अग्रसर हो सके। अतः संस्कार उन धार्मिक क्रियाओं और कर्मकाण्डों को कहा जाता है जो मानव के मन और बुद्धि को सुधार कर व्यक्ति के व्यक्तित्व को विकसित और प्रभावशाली बनाने में सहायक हो सकें।
ये संस्कार हिन्दू समाज में बालक के जन्म लेने के समय से उसके परलोक गमन तक विद्यमान रहते हैं। संस्कार ही वास्तव में व्यक्ति की आध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक उन्नति के आधार हैं। इसी कारण से प्राचीन भारत में इनका अत्यधिक महत्त्व था तथा वर्तमान काल में भी उनमें से अनेक संस्कार हिन्दू समाज में प्रचलित हैं।
संस्कारों का उद्देश्य
हिन्दू संस्कारों के उद्देश्यों के विषय में निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है क्योंकि संस्कारों को हिन्दू धर्म का एक अंग ही मान लिया गया है तथा हिन्दू समाज की धार्मिक भावना उसकी सामाजिकता में इस भाँति मिश्रित हो गई है कि दोनों को पृथक् करना असम्भव नहीं तो दुष्कर अवश्य हो गया है। संस्कारों को धर्म का अंग मान लेने से उनके सामाजिक महत्त्व का अनुमान लगाना एक ऐसी समस्या का रूप ग्रहण कर गया है जिसका समाधान नहीं किया जा सकता। फिर भी संस्कारों के उद्देश्यों का विवरण निम्न प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है-
(क) आध्यात्मिक विकास-संस्कार मानव का आध्यात्मिक विकास करते हैं। संस्कारों को करने वाले का मन क्रमशः अधिकाधिक पवित्र होता चला जाता है। फलतः संस्कारों में निहित धार्मिक भावना संस्कारकर्ता के अन्तर्गत आध्यात्मिकता की भावना का विकास करती है जिससे वह व्यक्ति ब्रह्म में लीन होने के योग्य बन जाता है।
(ख) व्यक्तित्व का विकास-हिन्दू संस्कारों का प्रधान उद्देश्य आध्यात्मिक विकास के साथ-साथ व्यक्ति का चहुंमुखी विकास भी करना है। संस्कारों को करने वाले व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक और आत्मिक उन्नति हो जाती है तथा उसके व्यक्तित्व का विकास होकर वह व्यक्ति इतना प्रभावशाली हो जाता है कि समाज में सभी व्यक्ति उसे सम्मान की दृष्टि से देखने लगते हैं।
(ग) भौतिक समृद्धि में वृद्धि-संस्कारों को भौतिक समृद्धि का दाता माना गया है। वैदिक संस्कार मनुष्य की मनोकामना पूर्ण करके उसकी भौतिक समृद्धि में वृद्धि करते हैं।
विभिन्न प्रकार के संस्कार
विद्वानों में संस्कारों की संख्या के विषय में मतैक्य नहीं है। गौतम सूत्र में संस्कारों की संख्या 40 तथा गृह-सूत्र में केवल 11 लिखी है। परन्तु अधिकांश विद्वानों एवं धर्म ग्रन्थों के
आधार पर संस्कारों की संख्या सोलह निश्चित की गई है, जो निम्न प्रकार है-
(1) गर्भाधान संस्कार- इस संस्कार को सम्पन्न करने का उद्देश्य उत्तम प्रकार की सन्तान प्राप्त करना है। इस संस्कार के करते समय पुरुष की आयु 25 वर्ष तथा स्त्री की अवस्था 16 वर्ष होनी चाहिए। इस संस्कार में लिप्त स्त्री-पुरुष दोनों की भावनाएँ और विचार जितने शुद्ध होंगे उतनी ही श्रेष्ठ सन्तान उन्हें प्राप्त होगी।
(2) पुंसवन संस्कार –पुंसवन शब्द का अर्थ पुत्र प्राप्त करने की अभिलाषा व्यक्त करना है। इस संस्कार को गर्भ रह जाने के तीन या चार माह पश्चात् किया जाता है। इस संस्कार के अन्तर्गत स्त्री और पुरुष दोनों व्रत रखते हैं तथा नवीन वस्त्र धारण करके यह प्रतिज्ञा करते हैं कि वे ऐसा कार्य कदापि नहीं करेंगे जिससे गर्भ के प्रति संकट उत्पन्न हो। इसके साथ ही पति-पत्नी दोनों ईश्वर से सुन्दर और सुयोग्य पुत्र प्रदान करने की प्रार्थना भी करते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार इस संस्कार को गर्भ धारण करने के उपरान्त आठवें मास तक की अवधि में किसी समय भी किया जा सकता है। गर्भकाल में गर्भवती स्त्री को गर्भाशय सम्बन्धी कष्टों से बचाने के लिए उसकी नाक के दाहिने छिद्र में वटवृक्ष का दूध भी टपकाया जाता था।
(3) सीमन्तोन्नयन-इस शब्द का अर्थ माथे से सिर के बाल ऊपर की ओर संवारने का है। स्त्री गर्भ धारण करने की सूचना अपने मुख से न कह कर इस क्रिया द्वारा गर्भ की सूचना अपने प्रियजनों को देती थी। माथे से बाल ऊपर संवारने की क्रिया गर्भधारण करने के चतुर्थ मास से बालक उत्पन्न होने तक नियमित रूप से की जाती थी। उस काल में ऐसा विश्वास किया जाता था कि माथे से बाल ऊपर की ओर संवारने में गर्भस्थ बालक की मानसिक शक्तियाँ विकसित होती हैं, स्त्री को भी गर्भ स्थिर रखने की शक्ति प्राप्त होती है तथा गर्भ की रक्षा हो जाती है।
(4) जाति कर्म-पुत्रोत्पन्न होने पर इस संस्कार को सम्पन्न किया जाता था। उस काल में ऐसी धारणा प्रचलित थी कि पुत्र का जन्म पिता को पितृऋण से मुक्त कर देता है। अतः कन्या के उत्पन्न होने पर कुछ गृहस्थजन भारी शोक मनाते थे, किन्तु कुछ बुद्धिमान व्यक्ति कन्या के जन्म को भी शुभ मानते थे। उनका कथन था कि कन्या के विवाह के समय दान-दहेज देने से पुण्य की प्राप्ति होती है।
इस संस्कार के अन्तर्गत पिता नवजात पुत्र को स्पर्श करके उसे दीर्घायु होने का आशीर्वाद देता था तथा उसे अपनी उंगली से घृत अथवा मधु चटाता था तथा उसके कान में कहता था—“ अग्नि दीर्घ जीवी है, वृक्षों की भी दीर्घ आयु होती है, मैं उस दीर्घ आयु से तुझे दीर्घायु बनाता हूँ।” उसके उपरान्त वह ईश्वर से प्रार्थना करता था कि हे प्रभु! इस बालक को शतवर्षीय बना दो अर्थात् यह सौ वर्ष तक जीवित रहे। इस संस्कार का उद्देश्य पिता और पुत्र को बन्धन में दृढ़ता से बाँधना था। संस्कार करने के उपरान्त ब्राह्मणों को दान दिया जाता था।
(5) नामकरण-इस संस्कार के द्वारा बच्चे का नाम अपने किसी पूर्वज अथवा किसी देवता या ऋषि के नाम पर रखा जाता था। इसके अन्तर्गत यज्ञ करके बालक की बायीं कलाई में सोने की पत्ती बांधी जाती थी तथा ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता था। इस संस्कार को जन्म के ‘ 11वें, 13वें, 19वें अथवा 100वें दिन कराने की व्यवस्था थी। कहीं-कहीं यह संस्कार जन्म से एक वर्ष पश्चात् भी कराया जाता था
(6) निष्क्रमण संस्कार-यह संस्कार बालक को घर से बाहर ले जाने के लिए किया जाता था। बालक के जन्म के 12वें दिन से चतुर्थ मास समाप्त होने तक किसी भी शुभ दिन इसे सम्पन्न किया जा सकता था। इसमें बालक को नवीन वस्त्र धारण करा कर बालक का पिता अथवा मामा उसे गोद में लेकर घर से बाहर आता था। इसके उपरान्त अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार केवल ब्राह्मणों को अथवा उनके साथ-साथ सगे-सम्बन्धियों एवं हित मित्रों को भी भोजन कराया जाता था। कहीं-कहीं इस संस्कार के अन्तर्गत बालक को पहले चन्द्रमा की चाँदनी में फिर अगले दिन सूर्य के प्रकाश में घर से बाहर ले जाया जाता था ।
(7) अन्नप्राशन-यह बच्चे को ठोस भोजन कराने का संस्कार माना गया है। धर्मशास्त्रियों के अनुसार संस्कार को बच्चे के जन्म के छठे मास में कराना चाहिए। इसके अन्तर्गत हवन करने के उपरान्त बालक के मसूड़ों में मधु, घृत, चावल, खीर तथा जिन घरों में माँस खाने का परहेज नहीं होता हो वहाँ मछली, बकरे और तीतर के माँस को मला जाता है। इस संस्कार के सम्पन्न हो जाने पर माँ बालक के स्तनपान की आदत छुड़ाने का कार्य आरम्भ कर देती है।
(8) चूड़ाकर्म अथवा मुण्डन संस्कार-इस संस्कार को वैदिक ग्रन्थों के आधार पर जन्म के पश्चात् प्रथम वर्ष में अथवा तृतीय वर्ष में किया जाता है। इसके अन्तर्गत पिता अपने घरेलू नाई से बालक के बाल मुंडवा देता था तथा उसके सिर पर शिखा की स्थापना करा देता था ।
(9) कर्णबेध संस्कार-इस संस्कार के अन्तर्गत बालक के कान पहली बार छेदे जाते थे। यह एक आवश्यक संस्कार माना जाता था, क्योंकि धर्मशास्त्रों के अनुसार जिस ब्राह्मण का कर्णवेध संस्कार नहीं होता था उसे अपवित्र माना जाता था। इस संस्कार के समय के विषय में शास्त्रकारों में मतभेद है। कुछ का कथन है कि यह संस्कार बालक के जन्म के दसवें या पन्द्रहवें दिन करना चाहिए। अन्य शास्त्रकारों के अनुसार छठे, सातवें या बारहवें मास में या फिर पाँचवें वर्ष में इस संस्कार को कराना उचित है ।
(10) उपनयन संस्कार-उपनयन का शाब्दिक अर्थ ‘पास ले जाना’ होता है । अब प्रश्न है किसके सन्निकट ? इसका उत्तर है आचार्य के सन्निकट । इस संस्कार का उल्लेख वेदों में भी किया गया है। ऋषि ऋण से मुक्ति के लिये भी इस संस्कार की योजना की गई। आश्वलायन गृह्यसूत्र के अनुसार ब्राह्मण कुमार का उपनयन आठवें वर्ष, क्षत्रियों का ग्यारहवें वर्ष और वैश्यों का बारहवें वर्ष होना चाहिये। महीनों में 5 से 6 महीने उसके लिये उपयुक्त माने गये हैं तथा नक्षत्रों में हस्त, चित्रा, स्वाति, पुष्य, घनिष्ठा, अश्विनी, मृग-शिखा, पुनर्वसु, श्रवण तथा रेवती उपयुक्त बताये गये हैं।
ब्रह्मचारी को दो वस्त्र धारण करने की बात कही गई। प्रथम ऊपरी भाग ढकने के लिये और दूसरा नीचे का भाग ढकने के लिये। डॉ. राजबली पाण्डे के शब्दों में, “इस संस्कार के द्वारा दीक्षित व्यक्तियों की गणना द्विजों में की जाती है।” संस्कारोपरांत व्यक्ति कठोर रूप से एक ब्रह्मचारी का जीवन व्यतीत करके वेदाभ्यास करता था। ब्रह्मचारी के लिये गायत्री मन्त्र आवश्यक था। वह यज्ञोपवीत धारण करने लगता था। डॉ. पाण्डे का कहना है कि भारत में आर्यों के आगमन के पूर्व से ही उनमें यह संस्कार प्रचलित था।
सांस्कृतिक दृष्टि से उपनयन संस्कार का विशेष महत्व था। शिष्य गुरु के यहाँ अनुशासनमय जीवन बिता कर इस संस्कार के विषय में जा… री प्राप्त करता था । उसको योग्य नागरिक बनाया जाता था और वह अपने अधिकारों एवं कर्त्तव्यों को समझने लगता था। केवल हिन्दुओं में ही नहीं बल्कि अन्य जातियों और धर्मों में भी इस प्रकार का विधान पाया जाता था। वास्तव में यह एक प्रकार से धार्मिक दीक्षा की विधि थी बिना उपनयन के व्यक्ति अशुद्ध होता था किन्तु इस संस्कार से वह द्विज कहलाता था। इसके फलस्वरूप उसे समाज में विशेषाधिकार एवं सुविधाएँ मिलती थीं।
तीनों उच्च वर्गों के लिये उपनयन संस्कार आवश्यक था। वास्तव में यह एक प्रकार से हिन्दुओं का विशाल साहित्य भण्डार का प्रवेश पत्र था। इस संस्कार से शिक्षा का प्रसार और साहित्य की विशेष उन्नति हुई।
उपनयन संस्कार के समय गुरु शिष्य को जो शिक्षाएँ देते थे वह उसके जीवन की धरोहर बन जाती थीं। उपनयन संस्कार के समय शिक्षा का भी प्रावधान था जिसके फलस्वरूप व्यक्ति विनम्रता का पाठ पढ़ते थे। उपनयन संस्कार के समय बालक को संयमित जीवन व्यतीत करने की भी शिक्षा दी जाती थी।
उपनयन के बाद द्वितीय जन्म हुआ माना जाता है। कुछ सभ्यताओं में मृत्यु हुए बिना दूसरे जन्म की सम्भावना नहीं दिखायी देती अतएव अंगच्छेद के द्वारा दूसरी मृत्यु करके नवीन प्रकार के जीवन में बालक को प्रवेश कराया जाता है।
हमारे समाज में जो भी ज्ञान-विज्ञान है, अथवा पूर्व पुरुषों की जो भी धरोहर समाज को प्राप्त है, उसका हस्तान्तरण करना भी अति आवश्यक है। यदि हस्तांतरण का कार्य न किया जाए तो यह ज्ञान और विज्ञान आगे आने वाली सन्तति को प्राप्त न हो सकेगा। इस संस्कार द्वारा इन्हीं ज्ञान-विज्ञानों को प्राप्त करने के लिए अवसर प्रदान किया जाता है जिससे कि व्यक्ति अपने जीवन को सफलतापूर्वक व्यतीत करने योग्य हो जाता है तथा अगले जीवन को भी पवित्र बनाने की तैयारी करता है।
यह कार्य चाहे सभ्य जाति हो अथवा असभ्य किसी न किसी रूप में किया जाता है। भले ही संस्कार के रूप में इसका पालन न किया जाता हो क्योंकि इस संस्कार का जो लक्ष्य है वह मानव जीवन तथा सामाजिक जीवन के लिये विशेष महत्त्व का है।
इस संस्कार द्वारा व्यक्ति को संयमी जीवन बिताने के योग्य बनाया जाता है। उपवीत होकर व्यक्ति दूसरे जीवन में प्रवेश करता है। जिसका उपनयन होता है वह द्विज कहा जाता है। स्त्रियों तथा शूद्र संयम के योग्य नहीं समझे गए जिससे उनका उपनयन नहीं होता। उच्चतर जीवन में उनके प्रवेश की व्यवस्था नहीं की गयी इसलिए उनको द्विज नहीं कहा गया।
(11) विद्यारम्भ संस्कार-यज्ञोपवीत संस्कार के उपरान्त एक वर्ष के भीतर ही इस संस्कार को सम्पन्न किया जाता था। इसके अन्तर्गत बालक को विद्याध्ययन के लिए गुरुकुल में भेज दिया जाता था। गुरुकुल से बालक विद्याध्ययन की समाप्ति पर ही गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट होने के लिए घर वापिस लौटता था।
(12) समापवर्तन संस्कार-विद्याध्ययन पूर्ण होने पर जब विद्यार्थी गुरुकुल से घर वापिस लौटता था तो यह संस्कार सम्पन्न किया जाता था। इस संस्कार के उपरान्त बालक गुरु को अपनी सामर्थ्य के अनुसार दक्षिणा देकर उन्हें सन्तुष्ट करता था तथा मृगचर्म, मेखला और दण्ड आदि को जल में विसर्जित करके ब्रह्मचर्य आश्रम तथा उसकी कठोरता से मुक्ति पा जाता था और गृहस्थाश्रम में प्रवेश पाने के लिए तैयार हो जाता था।
(13) विवाह संस्कार-गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के लिए इस संस्कार को सम्पन्न किया जाता था। इसके अन्तर्गत ब्रह्मचर्याश्रम को पूर्ण करके आए युवक का विवाह सुयोग्य लड़की के साथ करके दोनों को प्रेमपूर्ण पुनीत बन्धन में बांधा जाता था। विवाह के दो उद्देश्य थे–प्रथम, सांसारिक सुखों का उपभोग करना तथा द्वितीय, मनुष्य को उसके पितृ ऋण से उऋण करना एवं उसे सांसारिक दायित्वों को पूर्ण करने योग्य बनाना।
गौतम सूत्र में संस्कारों की संख्या कितनी है?
गौतम सूत्र में संस्कारों की संख्या 40 है।